4 May 2013

ART OF LIVING

'मन शुद्ध ,पवित्र और संकल्पवान बन जाये तो जीवन की दिशा धारा ही बदल जाये | जिसने मन को जीत लिया ,उसने सारा संसार जीत लिया | '
विपरीत परिस्थितियों में ,अभाव की दशा में ,बुरे स्वभाव के लोगों के बीच रहते हुए भी जिस कला द्वारा जीवन को आनंदमय ,उन्नत और संतोषजनक बनाया जा सकता है उसे 'जीवन जीने की कला 'कहते हैं | मनुष्य को सुखी होना सिखाया जा सकता है | यह कोई जटिल या असाध्य प्रक्रिया नहीं है | बहुत से लोग यह समझते हैं कि धन -संपन्न होने से सभी प्रकार के दुखों और अभावों से छुटकारा पाया जा सकता है | वस्तुत:बात ऐसी नहीं है | दुःख एक आंतरिक अभावात्मक धारणा है | वह अंतस से संबंधित एक रिक्त अनुभूति है | उस रिक्तता को बाहरी उपादानो से नहीं भरा जा सकता | यही कारण है कि जो लोग स्वस्थ -संपन्न देखे जाते हैं ,वे भी दुःख और पीड़ाओं से ग्रस्त रहते हैं |
साधन -सम्पन्नता सुख नहीं है तो सुख आखिर है क्या ?
   
       'सुख व्यक्ति के मानसिक चैन का एक स्तर है ,जिससे वह कुल मिलाकर अपने जीवन से संतुष्ट रहता है | "संतुष्टि ---एक भावनात्मक अनुभूति है ,जो उपलब्ध को पर्याप्त मानने से जन्मती है और अभीष्ट को प्राप्त करने के लिये प्रचुर सामर्थ्य और साहस प्रदान करती है |
         सुख एक भावनात्मक उपलब्धि है ,इस उपलब्धि को अर्जित करने के लिये भावनाओं का संतुलन ,परिष्कार ,परिमार्जन ही सफल और कारगर तरीका है |
         जीवन की इस आंतरिक नीरसता और खोखलेपन को दूर करने के लिये भावनाओं को परिष्कृत करने हेतु सेवा -परमार्थ निष्काम कर्म को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करना होगा ,इसी से जीवन का खालीपन दूर होगा और जीवन में आंतरिक ख़ुशी .और संतुष्टि महसूस होगी | 

No comments:

Post a Comment