' ईश्वर भक्ति का अर्थ है -- इस विराट विश्व की सेवा -साधना की रीति -नीति को अपनाना , परमार्थ परायण होना और मानव जीवन के साथ जुड़े हुए आदर्श व कर्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन करना । '
कांचीपुरम में किसी ने विनोबा से कहा कि यहां एक ऐसा समुदाय है , जो ईश्वर को नहीं मानता । उन्होंने कहा -" इसमें कौन सी नई बात है ! ऐसे आदमी सारे देश में हैं , सारी दुनिया में हैं । हमें इसकी परवाह नहीं करनी चाहिये , क्योंकि वे लोग भगवान को भले ही न माने , भगवान तो उनको मानता है । बच्चा माँ को भूल जाये तो कोई बात नहीं । माँ बच्चे को भूल जाये , तो बड़ी बात है । " आगे वे कहते हैं --" जो यह कहते हैं कि हम भगवान को नहीं मानते , वे यह तो कहते हैं कि हम सज्जनता को मानते हैं , मानवता को मानते हैं । हमारे लिये तो इतना ही बहुत है ।
मानवता को मानना और ईश्वर को मानना हमारी द्रष्टि में एक ही बात है । जो भगवान को मानते हैं , देखना चाहिये कि वे मानवता ,करुणा , दया , सेवा में कितना विश्वास रखते हैं । मूल्यांकन इसी आधार पर होना चाहिये । "
महर्षि रमण प्रखर तपस्वी और वीतराग संत थे । वे अपने शरीर पर केवल एक कौपीन धारण करते थे और कभी किसी की दी हुई कोई वस्तु स्वीकार नहीं करते थे । एक बार उनके एक धनाढ्य शिष्य ने उनसे आकर कहा --" आप हमारा दिया कभी नहीं लेते । मैं आपके लिये ये नई कौपीन लाया हूँ , कृपया इसे स्वीकार कर लें । " महर्षि रमण बोले --" वो सामने बैठा बच्चा देख रहे हो , कैसे ठंड में सिकुड़ रहा है । जाओ ! ऐसे लोगों के लिये कपड़ों व कंबलों की व्यवस्था कर दो , समझना कि ये सब मेरे ही शरीर पर लगा है । "
कांचीपुरम में किसी ने विनोबा से कहा कि यहां एक ऐसा समुदाय है , जो ईश्वर को नहीं मानता । उन्होंने कहा -" इसमें कौन सी नई बात है ! ऐसे आदमी सारे देश में हैं , सारी दुनिया में हैं । हमें इसकी परवाह नहीं करनी चाहिये , क्योंकि वे लोग भगवान को भले ही न माने , भगवान तो उनको मानता है । बच्चा माँ को भूल जाये तो कोई बात नहीं । माँ बच्चे को भूल जाये , तो बड़ी बात है । " आगे वे कहते हैं --" जो यह कहते हैं कि हम भगवान को नहीं मानते , वे यह तो कहते हैं कि हम सज्जनता को मानते हैं , मानवता को मानते हैं । हमारे लिये तो इतना ही बहुत है ।
मानवता को मानना और ईश्वर को मानना हमारी द्रष्टि में एक ही बात है । जो भगवान को मानते हैं , देखना चाहिये कि वे मानवता ,करुणा , दया , सेवा में कितना विश्वास रखते हैं । मूल्यांकन इसी आधार पर होना चाहिये । "
महर्षि रमण प्रखर तपस्वी और वीतराग संत थे । वे अपने शरीर पर केवल एक कौपीन धारण करते थे और कभी किसी की दी हुई कोई वस्तु स्वीकार नहीं करते थे । एक बार उनके एक धनाढ्य शिष्य ने उनसे आकर कहा --" आप हमारा दिया कभी नहीं लेते । मैं आपके लिये ये नई कौपीन लाया हूँ , कृपया इसे स्वीकार कर लें । " महर्षि रमण बोले --" वो सामने बैठा बच्चा देख रहे हो , कैसे ठंड में सिकुड़ रहा है । जाओ ! ऐसे लोगों के लिये कपड़ों व कंबलों की व्यवस्था कर दो , समझना कि ये सब मेरे ही शरीर पर लगा है । "
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