14 March 2013

TACT

अंत;करण में विवेक और मन में संतोष ही स्थायी सुख शांति और प्रसन्नता
 देते हैं | प्रत्येक मनुष्य ,यहां तक कि प्रत्येक जीवधारी अपनी प्रकृति के अनुसार आचरण करता है | जैसे सर्प की प्रकृति क्रोध है ,इस क्रोध के कारण ही वह फुफकारते हुए काटता है और अपने अंदर का जहर उंडेल देता है | कोई उसे कितना ही दूध पिलाये ,उसकी प्रकृति को परिवर्तित नहीं किया जा सकता | इसी तरह नागफनी और बबूल को काँटों से विहीन नहीं किया जा सकता ,जो भी इनसे उलझेगा उसे ये काँटे चुभेंगे ही | जो विवेकवान हैं ,जिनका द्रष्टिकोण परिष्कृत है ,जो इस सत्य को जानते हैं ,वे प्रत्येक घटनाक्रम का जीवन के लिये सार्थक उपयोग कर लेते हैं | जैसे अमृत की मधुरता तो उपयोगी है ही ,परन्तु यदि विष को औषधि में परिवर्तित कर लिया जाये तो वह भी अमृत की भांति जीवन दाता हो जाता है |

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