6 March 2013

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है |
भाग्य और पुरुषार्थ जिंदगी के दो छोर हैं | जिसका एक सिरा वर्तमान में है तो दूसरा हमारे जीवन के अतीत में अपना विस्तार लिए हुए है | भाग्य का दायरा बढ़ा है जबकि पुरुषार्थ के पास अपना कहने के लिए केवल एक पल है ,जो अभी अपना होते हुए भी अगले ही पल भाग्य के कोष में जा गिरेगा | पुरुषार्थ आत्मा की चैतन्य शक्ति है ,जबकि भाग्य केवल जड़ कर्मों का समुदाय | जिस तरह छोटे से दीखने वाले' सूर्य मंडल के उदय होते ही तीनों लोकों का अंधेरा भाग जाता है ठीक उसी तरह पुरुषार्थ का एक पल भी कई जन्मों के भाग्य पर भारी पड़ता है |
पुरुषार्थ की प्रक्रिया यदि निरंतर अनवरत एवं अविराम जारी रहे तो पुराने भाग्य के मिटने और मनचाहे नये भाग्य के बनने में देर नहीं | पुरुषार्थ का प्रचंड पवन आत्मा पर छाए भाग्य के सभी  | आवरणों को छिन्न -भिन्न कर देता है | तब ऐसे संकल्पनिष्ठ पुरुषार्थी की आत्म शक्ति से प्रत्येक असंभव संभव और साकार होता है | तभी तो ऋषि वाणी कहती है -'मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है|

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