पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- -यह कहना गलत है कि गृहस्थ आश्रम साधना में किसी तरह बाधक है l प्राचीन काल में बहुसंख्यक ऋषि सपत्नीक रहकर गुरुकुल में वास कर साधना करते , शिक्षण , शोध -प्रक्रिया चलाते थे l ' ----एक बार महर्षि अत्रि अपने आश्रम से चलकर एक गाँव में पहुंचे l आगे का मार्ग बहुत बीहड़ और हिंसक जीव -जंतुओं से भरा हुआ था इसलिए वे रात को उसी गाँव में एक गृहस्थ के घर टिक गए l गृहस्थ ने उन्हें ब्रह्मचारी वेष में देखकर उनकी आवभगत की और भोजन के लिए आमंत्रित किया l महर्षि अत्रि ने जब समझ लिया कि परिवार के सभी सदस्य ब्रह्मसंध्या का पालन करते हैं , किसी में कोई दोष -दुर्गुण नहीं है तो उन्होंने आमंत्रण स्वीकार कर लिया l भोजन के उपरांत अत्रि ने गृहस्थ से प्रार्थना की कि अपनी कन्या मुझे दीजिए , जिससे मैं अपना घर बसा सकूँ l उन दिनों वर ही सुकन्या ढूँढने जाते थे , कन्याओं को वर तलाश नहीं करने पड़ते थे l गृहस्थ ने अपनी पत्नी से परामर्श किया l अत्रि के प्रमाण पात्र देखे और वंश की श्रेष्ठता पूछी l वे जब इस पर संतुष्ट हो गए कि वर सब प्रकार से योग्य है तो उन्होंने पवित्र अग्नि की साक्षी में अपनी कन्या का संबंध अत्रि के साथ कर दिया l अत्रि के पास तो कुछ था नहीं , इसलिए गृहस्थी सञ्चालन के लिए आरंभिक सहयोग के रूप में अन्न , बिस्तर , बस्तर , थोडा धन और गाय भी दी l छोटी किन्तु सब आवश्यक वस्तुओं से पूर्ण गृहस्थी लेकर अत्रि अपने घर पधारे और सुख पूर्वक रहने लगे l इन्ही अत्रि और अनसूया से दत्तात्रेय जैसी तेजस्वी संतान को जन्म मिला l भगवान को भी एक दिन इनके सामने खुकना पड़ा था l