10 July 2024

WISDOM -------

   महात्मा  बुद्ध  अक्सर   अपने  अनुयायियों  और  आम  लोगों  के  बीच  उपदेश  दिया  करते  थे  l  एक  बार  एक  युवक  ने  उनसे  कहा ---- " प्रभु  ! आपके  उपदेश  सुनने  के  बाद  मैं  उन्हें  अपने  गृहस्थ  जीवन  में  पालन  करने  का  प्रयास  तो  करता  हूँ  , पर  मैं  वैसा  सदाचरण  नहीं  कर  पाता  , जैसा  आपके  सत्संग  में  सुनकर  जाता  हूँ  l  फिर  इसमें  मेरा  क्या  दोष  है  ?  बताइए  मैं  क्या  करूँ  ? "    भगवान  बुद्ध  मुस्कराते  हुए  बोले ---- " वत्स  ! यदि  प्रयास  सच्चा  हो  और   सही  दिशा  में  हो   तो  उसमें  सफलता  अवश्य  मिलती  है  l  आधे -अधूरे  मन  से  किए  गए  प्रयास  निष्फल  ही  होते  हैं  l "  भगवान  बुद्ध  ने  उसे  एक  बाँस  की  टोकरी  दी   और  उसमें  पास  की  नदी  से  जल  भरकर  लाने  को  कहा  l  युवक  नदी  में  जाकर  टोकरी  में  जल  भरता  , पर  उसे  बाहर  निकालते  ही  पूरा  जल  टोकरी  से  बाहर  निकल  जाता  l  भगवान  बुद्ध  ने  कहा --- " भले  ही  उसमें  जल  नहीं  रहा  हो  , पर  तुम  अपना  प्रयास  जारी  रखो  l "  युवक  ने  वैसा  ही  किया   l  युवक  प्रतिदिन  टोकरी  में  जल  भरने  का  प्रयास  करता  , पर  हर  बार  असफल  रहता  l   भगवान  बुद्ध  की   प्रेरणा  से  युवक  ने  हार  नहीं  मानी  निरंतर  प्रयास  करता  रहा   और  आखिर  वह  दिन  आ  गया  जब  टोकरी   के  छिद्र  फूलकर  पूरी  तरह  बंद  हो  गए   और  उस  टोकरी  में में  जल  भी  भर  आया  l  युवक  ने  जल  भरी  टोकरी  भगवान  बुद्ध  को  दिखाते  हुए  कहा  --- ' प्रभु  !  आपने  सच  ही  कहा  था ,  आज  इस  टोकरी  में  पूरा  जल  भर  आया  l "   भगवान  बुद्ध  बोले  ---- "वत्स  !  जो  इसी  प्रकार  सत्संग  करते  हैं   और  सत्संग  में  मिले  ज्ञान  के  सूत्र  को  अपने  जीवन  में  उतारने  का   सच्चा  प्रयास  करते  हैं  ,  वे  एक  दिन  उसमें  अवश्य  ही  सफल  होते  हैं  l  लगातार  सत्संग  में  शामिल  होने  से   व्यक्ति  का  मन  निर्मल  होने  लगता  है  और  उन  उपदेशों  को  अपने  जीवन  में  उतारने  से   इस  टोकरी  के  छिद्रों  की  तरह   उसके  अवगुण  के  छिद्र  भरने  लगते  हैं   और  उसमें  गुणों  का  जल  भरने  लगता  है   जिससे  उसका  जीवन  सुख  और  शांति  से  भर  जाता  है  l  "  

WISDOM -----

  संसार  में  अनेक  प्राणी  हैं  , भूख , प्यास ,  निद्रा -------- आदि   की  जरुरत  सभी  प्राणियों  को  है   लेकिन  मनुष्य  को   यह  विशेषाधिकार   बुद्धि  के  रूप  में  केवल  मनुष्य  को  ही  प्राप्त  है  कि  वह  अपनी  चेतना  को  विकसित  करे , परिष्कृत  करे  और  इनसान  बने  l    मनुष्य  के  पास  बुद्धि  है  ज्ञान  है   लेकिन  ज्ञान  के  साथ  यदि  विवेक  नहीं  है  , चेतना शून्य  है  तो  वह  अपनी  बुद्धि  का  दुरूपयोग  करता  है   और  बुद्धि  का  दुरूपयोग  करते -करते  वह  नर -पशु    और  मनुष्य  शरीर  में  पिशाच  की  श्रेणी  में  आ  जाता  है   जो  केवल  ध्वंस  और  उत्पीड़न  का  ही  कार्य  करते  हैं  , उनमें  संवेदना  नहीं  होती  l  पं . श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ----- " विज्ञानं  ने  असीमित  शक्तियां  मानव  के  हाथ  में  दे  दीं  हैं  ,  पर  उस  शक्ति  से  कुछ  भी  शुभ  नहीं  हुआ  l  शक्ति  आई  है  पर  शांति  नहीं  आई  है  l  मानव  चेतना  को  सही  ढंग  से   जाने  बिना  विज्ञान  को  जानना  अधूरा  ज्ञान  है   और  ऐसे  अधूरे  ज्ञान  से  ,  अपनी  ही  चेतना  को  न  जानने  से   जीवन  दुःख  में  परिणत   हो  जाता  है   l   "                              इतना  विकास  और  भौतिक  सुख -सुविधाओं  में  इतनी  वृद्धि  के  बावजूद   मनुष्य  तनाव  से  और  नई -नई  बीमारियों  से  पीड़ित  है   l  विवेकहीन  विकास  कुछ  ऐसा  होता  है  जिसमें  मनुष्य  स्वयं  अपने  ही  हाथों  से  स्वयं  को  और  समूची  मानव सभ्यता  को  मिटाने  की  दिशा  में  आगे  बढ़ता  जाता  है  l                                                      राजकुमार  शालिवाहन  गुरु  आश्रम  में  अध्ययन  कर  रहे  थे  l  आश्रम  में  अन्य  प्राणियों   के  जीवनक्रम  को  देखने -समझने  का  अवसर  मिला   तथा  मानवोचित  मर्यादाओं  के  पालन  की  कड़ाई  से  भी  गुजरना  पड़ा  l  उन्हें  लगा  कि  पशुओं  पर   मनुष्य  जैसे  अनुशासन -नियंत्रण  नहीं  लगते  ,  वे  इस  द्रष्टि  से  अधिक  स्वतंत्र  हैं  l  मनुष्य  को  तो  कदम -कदम  पर  प्रतिबंधों  को  ध्यान  में  रखना  पड़ता  है  l  एक  दिन  उन्होंने  अपने  विचार  गुरुदेव  के  सामने  रख  दिए  l   गुरुदेव  ने  स्नेहपूर्वक  उनका  समाधान  किया ----- " वत्स  !  पशु  जीवन  में  चेतना   कुएं  या  गड्ढे  के  पानी  की  तरह  रहती  है  l  उसे  अपनी  सीमा  में  रहना  पड़ता  है  , इसलिए  उस  पर  बाँध  या  किनारा  बनाने  की  आवश्यकता  नहीं  पड़ती  l  लेकिन  मनुष्य  जीवन  में  चेतना  प्रवाहित  जल  की  तरह  रहती  है  ,  उसे  अपने  गंतव्य  तक  पहुंचना  होता  है  ,  इसलिए  उसे  मार्ग निर्धारण , बिखराव  और  भटकाव  से  रोक  आदि  की  आवश्यकता  पड़ती  है  l  कर्तव्य -अकर्तव्य  के  बाँध  बनाकर  ही   उसे  मानवोचित  लक्ष्य  तक  पहुँचाया  जा  सकता  हैं  l  अन्य  प्राणी  अपने  तक  सीमित  हैं  , लेकिन  मनुष्य  को  यह   उत्तरदायित्व  सौंपा  गया  है  कि  वह  अनेकों  का  हित  करते  हुए  आगे  बढ़े  l   इसलिए  उसे  प्रवाह  की  क्षमता  भी  मिली  है   और  कर्तव्यों  का  बंधन  भी  आवश्यक  है  l