आचार्य उपकौशल यात्रा पर निकले थे , रात हो जाने के कारण उन्हें वन में एक वृक्ष के नीचे रुकना पड़ा l सोने के कुछ देर बाद उन्हें किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी l उन्होंने लकड़ियाँ जलाकर देखा , पर कोई दिखाई नहीं दिया l तब उन्होंने कहा ---- "यहाँ कौन है ? सामने क्यों नहीं आते ? " उत्तर मिला ---- " मैं निकृष्ट प्रेत आपके ब्रह्मतेज के सामने कैसे प्रकट हो सकता हूँ ? कृपया मेरे उद्धार का मार्ग बताएं ? " आचार्य ने उसकी इस दशा का कारण पूछा , तो उसने कहा --- " भोगों को प्राप्त करने के लिए मैंने कभी भी कर्मों की नैतिकता की परवाह नहीं की और आजीवन ऐसा जीवन बिताने पर भी मेरी वासनाओं की संतुष्टि न हो सकी , इस कारण मृत्यु के उपरांत प्रेत योनि में भटक रहा हूँ l " आचार्य कहने लगे --- " यह मन ही अनियंत्रित होने पर पतन का कारण बनता है और यदि मन को साध लिया जाए तो यही मुक्ति का हेतु भी सिद्ध होता है l " आचार्य ने अपने तप , पुण्य का एक अंश देकर उसके कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया l इसके परिणामस्वरूप उस प्रेत का पुनर्जन्म हुआ और स्मृति रहने के कारण वह साधना और लोकसेवा करते हुए मुक्ति के पथ पर प्रशस्त हुआ l