पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- " कृपणता ( कंजूसी ) एक ऐसी मानसिकता है , जो धन को संग्रह तो करवाती है , लेकिन उसका उपयोग करना नहीं सिखाती l कृपणता एक ऐसा असुरक्षा का भाव है , जिसमें बैंक एकाउंट में पर्याप्त धन होने के बावजूद कहीं वह कम न हो जाये , यह मानकर व्यक्ति छोटी -छोटी चीजों के लिए औरों के आगे हाथ पसारता रहता है l कृपण व्यक्ति आवश्यकता की सभी वस्तुएं उपलब्ध होने के बावजूद उसका उपभोग न तो स्वयं करता है और न ही औरों को उसका किंचित अंश उपलब्ध कराता है l सारी सुविधाएँ होते हुए भी स्वयं क्षुद्रता के साथ जीता है और किसी अन्य का भी कोई लाभ नहीं करता l " एक कथा है --------- एक गाँव में एक वृद्ध महिला अपने परिवार के साथ रहती थी l परिवार में उसका बेटा , बहू , पोता -पोती थे l उसके पास इतना खेत था कि एक वर्ष की फसल तैयार हो जाती थी l उस फसल से एक वर्ष का गुजारा आसानी से हो जाता था l एक बार चावल की फसल इतनी हुई कि उससे 364 दिनों के भोजन का प्रबंध हो जाता केवल एक दिन के लिए अन्न कम पड़ रहा था l वृद्ध महिला को बड़ी चिंता हो गई , इसी उधेड़ -बुन में लगी रही कि कैसे क्या किया जाए कि इस एक दिन की भी व्यवस्था हो जाए l उसने सोचा कि क्यों न एक दिन धान की भूसी का भोजन कर लिया जाये l उसने सोचा कि क्यों न आज ही भूसी खा ली जाए ताकि शेष 364 दिन आराम से बीतें l इस सोच में उसने भरपेट भूसी खाई और पानी पीकर सो गई l वृद्ध महिला के पेट में भूसी इतनी फूल गई कि वह पचा नहीं सकी और वही मर गई l कृपणता एक ऐसी ही बुद्धिहीनता है , जहाँ पर संसाधनों के होते हुए भी मनुष्य अभाव के मार्ग का चयन करता है l