ऋषि प्रवर अपने शिष्यों को महर्षि वाल्मीकि के डाकू से ऋषि बनने की कथा सुना रहे थे l कथा सुनकर एक शिष्य के मन में प्रश्न उठा , वह उठकर पूछने लगा ----- " गुरुवर ! गुरुकुल की परंपरा के अनुसार हम नित्य कर्म में वेदोक्त उपासना -पूजा का क्रम अपनाते हैं, तब भी कुछ आध्यात्मिक प्रगति होती नहीं दिखाई देती , जबकि केवल ' मरा -मरा ' का जाप करने से महर्षि वाल्मीकि को परम पद की प्राप्ति कैसे हुई ? " ऋषि बोले ---- " वत्स ! श्रद्धा एवं आस्था अंत:करण की प्रवृत्तियों हैं , पर ये तभी फलदायी होती हैं , जब ये विधेयात्मक हों l अचल श्रद्धा और अडिग विश्वास हो तो मिटटी की मूर्ति भी एकलव्य को विद्या प्रदान कर सकती है l उपासना और कर्मकांड का महत्त्व तभी तक है , जब तक उसके साथ भावनात्मक परिष्कार की प्रक्रिया जुड़ी हो , अन्यथा सिर्फ दिखावे के प्रयोजन से कुछ सार्थक लाभ मिल पाना संभव नहीं है l " वर्तमान युग में हम देखें तो सभी धर्मों में लोग अपने अनुसार पूजा -उपासना करते हैं लेकिन अपने मन में जमी बुराइयों छल , कपट , ईर्ष्या , द्वेष , स्वार्थ , लोभ , लालच , तृष्णा , अहंकार , झूठ -फरेब ---- आदि बुराइयों को त्यागने का जरा भी प्रयास नहीं करते l इसलिए संसार में अशांति , युद्ध , तनाव , दंगे , प्राकृतिक प्रकोप , सामाजिक , पारिवारिक बुराइयाँ , अपराध चारों ओर है l विकास तो बहुत हुआ लेकिन मनुष्य की चेतना परिष्कृत नहीं है इस कारण मनुष्य अपने द्वारा किए गए विकास का दुरूपयोग कर स्वयं ही मानव सभ्यता का विनाश करने को आतुर है l