बौद्ध  धर्म  तथा  संस्कृति  के  अध्ययन  के  जिज्ञासु  एक  युवक  ने  तिब्बत  जाकर  अध्ययन  करने  का  निश्चय  किया  ,ब्रिटिश  सरकार  ने  'व्यर्थ  की  बात ' कहकर  अनुमति  नहीं  दी तब  उन्होंने  अपना  वेष  बदलकर  नेपाल  में  प्रवेश  किया,  फिर  लद्दाखी  का  रूप    बनाकर  मार्ग  में  आने  वाली  कठिनाइयों  का  सामना   करते   हुए  वे  तिब्बत   पहुँच  गये  ।  इन्हें  सारा  संसार  राहुल  सांकृत्यायन  के  नाम  से  जानता  है       राहुल  सांकृत्यायन भारतीय  संस्कृति  का  उदात्त  स्वरुप   विश्व  के   सम्मुख  रखना  चाह्ते  थे  ।  वे  दो  दर्जन  भाषाओँ  के  ज्ञाता  थे  । उन्होंने   अनेक  पुस्तकें  लिखीं,  वे  एक  नहीं  पूरी  चार  पुस्तकें  एक  साथ  ही  आरंभ  करते  थे,  जब  एक  को  लिखते-लिखते  मन  ऊब  जाता  तो  दूसरी  प्रारंभ  कर  देते  ।
वे कहा करते थे--- " व्यक्ति को आयु देने में प्रकृति कंजूसी करती है । मुझे जितना काम करना है उसके अनुपात में मुझे आयु बहुत कम मिली है । "
प्रात:काल चार बजे उठने के बाद रात्रि बारह बजे तक अविरल गति से उनका कार्य चलता रहता था उनका यह क्रम पूरे चालीस वर्ष तक चला ।
उन्हें श्रीलंका विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म तथा संस्कृति विभाग का डीन बनाया गया । सिंहली भाषा का ज्ञान होने के कारण छात्रों ने इनसे सिंहली में भी पढ़ाने का आग्रह किया, इस पर उन्होंने कहा--- भारतीय धर्म और संस्कृति की अच्छी और सही अभिव्यक्ति हिंदी और संस्कृत इन दो भाषाओँ में ही हो सकती है । उनकी सभी पुस्तकें हिंदी और संस्कृत में लिखने का भी यही कारण था ।
चलती हुई रेलगाड़ियों व धर्मशालाओं में भी उन्होंने लिखने का क्रम बंद नहीं किया, संदर्भ के लिए उन्हें पुस्तकों की आवश्यकता नहीं होती थी, उनका मस्तिष्क ही सब कुछ था । साठ वर्ष की आयु में भी उनमे युवकों सा उत्साह था । जब उनके हाथ कांपने लगे तो उन्होंने टाइप का सहारा ले लिया,
हाथ कांपने की असमर्थता को भी उन्होंने अपने लिए हितकारी माना और कहने लगे कि टाइपराइटर में कितनी ही प्रतियाँ एक साथ निकल आती हैं, श्रम और समय की बचत हो जाती है ।
इस प्रकार की निराशाओं में भी जो आशावान बने रहते हैं वे ही जीवन का सच्चा आनंद प्राप्त कर सकते हैं
वे कहा करते थे--- " व्यक्ति को आयु देने में प्रकृति कंजूसी करती है । मुझे जितना काम करना है उसके अनुपात में मुझे आयु बहुत कम मिली है । "
प्रात:काल चार बजे उठने के बाद रात्रि बारह बजे तक अविरल गति से उनका कार्य चलता रहता था उनका यह क्रम पूरे चालीस वर्ष तक चला ।
उन्हें श्रीलंका विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म तथा संस्कृति विभाग का डीन बनाया गया । सिंहली भाषा का ज्ञान होने के कारण छात्रों ने इनसे सिंहली में भी पढ़ाने का आग्रह किया, इस पर उन्होंने कहा--- भारतीय धर्म और संस्कृति की अच्छी और सही अभिव्यक्ति हिंदी और संस्कृत इन दो भाषाओँ में ही हो सकती है । उनकी सभी पुस्तकें हिंदी और संस्कृत में लिखने का भी यही कारण था ।
चलती हुई रेलगाड़ियों व धर्मशालाओं में भी उन्होंने लिखने का क्रम बंद नहीं किया, संदर्भ के लिए उन्हें पुस्तकों की आवश्यकता नहीं होती थी, उनका मस्तिष्क ही सब कुछ था । साठ वर्ष की आयु में भी उनमे युवकों सा उत्साह था । जब उनके हाथ कांपने लगे तो उन्होंने टाइप का सहारा ले लिया,
हाथ कांपने की असमर्थता को भी उन्होंने अपने लिए हितकारी माना और कहने लगे कि टाइपराइटर में कितनी ही प्रतियाँ एक साथ निकल आती हैं, श्रम और समय की बचत हो जाती है ।
इस प्रकार की निराशाओं में भी जो आशावान बने रहते हैं वे ही जीवन का सच्चा आनंद प्राप्त कर सकते हैं
 
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