8 March 2018

जिन्होंने भारत में एक युग से आंधी - तूफानों से स्त्री - शिक्षा के बुझे हुए दीप को फिर से जलाया ---- स्वाधीनता के मन्त्र - द्रष्टा -- दादाभाई नौरोजी

     दादाभाई  नौरोजी  के  पिता  का  जिस  समय  देहान्त  हुआ  उस  समय  दादाभाई  की  आयु  मात्र  चार  वर्ष  थी  l  उनके  परिवार  की  आर्थिक  स्थिति  भी  अच्छी  नहीं  थी  l  पारसियों  में  विधवा  विवाह  की  व्यवस्था  है ,  लेकिन  उनकी  माता  माणिकबाई  ने  पुनर्विवाह  करना  उचित  न  समझा  और  आजीवन  विधवा  रहकर  , अपने  परिश्रम  के  बल  पर  अपनी  एकमात्र  संतान  दादाभाई  को  पढ़ा - लिखाकर  योग्य  बनाने  में  ही  अपने  जीवन  की  सार्थकता  समझी  l
  दादाभाई  ने  अपनी  माता  का  चरित्र - चित्रण  करते  हुए  लिखा  है --- " मेरी  माता  पचास  वर्ष  तक  मेरी  सहायिका  और  प्रेरणा - केंद्र  बनी  रहीं  l  अपने  आचरण  में आज   मैं  जिस  प्रकाश  के  दर्शन  कर  रहा  हूँ ,  वह  मेरी  ममतामयी  माता  का  ही  फैलाया  हुआ  है  l  यद्दपि  वे  निरक्षर  थीं   लेकिन  उन्होंने  मेरी  शिक्षा - दीक्षा  के  प्रबंध  के  लिए  अथक  परिश्रम  किया  l   उन्होंने  न  केवल  मुझे  प्रेम  ही  किया  , बल्कि  कड़ाई  के  साथ   मुझ  पर  शासन  रखते  हुए   अनुशासन  की  शिक्षा  भी  दी  l 
  स्त्री - शिक्षा  के  लिए  मैं  जो  कुछ  कर  सका  ,  उसमे  उनका  महान  सहयोग  सम्मिलित  रहा  l  समाज  के  अन्धविश्वास  और  विकृतियों  को  दूर  करने  में  वे  सदा  ही  मेरी  सहायिका  बनी  रहीं  l "
    शताब्दियों  से  पिछड़े  समाज  में  स्त्री - शिक्षा  का  विचार  सर्वथा  नया  था  l  दादाभाई  ने  इस  संबंध  में  अपने  संस्मरण  बताते  हुए  लिखा  है --- "  बहु - बेटियों  को  पढ़ाने  की  बात  सुनकर  लोग  बहुत  क्रुद्ध  होते  ,  कई  बार  मकान  की  सीढ़ियों  से  धक्का  तक  दे  दिया  l  "    लेकिन  उन्होंने  हिम्मत  नहीं  हारी  l  अपने  सहयोगियों  के  साथ  वे  द्वार - द्वार  और  घर - घर  तक  जाते  और  माता - पिताओं  से  प्रार्थना  करते  कि  अपनी  लड़कियों  को  कहीं  भेजने  की  जरुरत  नहीं , अपनी  बैठक , बरामदे अथवा  द्वार  पर  पढ़ाने  की  अनुमति  दें  l  सच्ची  सेवा भावना  में  बड़ी  प्रेरणा  होती  है  ,  धीरे - धीरे  उत्साह  बढ़ा  और  स्त्री  शिक्षा  का  प्रचार  हुआ  l 

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