अपनी शक्ति के बल पर किसी भूभाग को जीतना , लोगों को अपना गुलाम बनाना बहुत सरल है लेकिन अपने ही मन को काबू में रखना , उसकी लगाम अपने हाथ में रखना सबसे कठिन कार्य है l कोई कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो यदि उसका अपनी कामना , वासना , तृष्णा , महत्वाकांक्षा, अहंकार जैसे विकारों पर नियंत्रण नहीं है तो वह इन विकारों के वशीभूत होकर किसी न किसी की गुलामी अवश्य करेगा l जैसे रावण कितना शक्तिशाली और ज्ञानी था लेकिन उसका अपने मन पर नियंत्रण नहीं था l सीताजी को पाने के लिए अपनी लंका छोड़कर , भिखारी बनकर , सबसे छुपते -छिपाते कटोरा लेकर पर्णकुटीर आ गया l अपनी धूर्तता के बल पर वह उन्हें लंका ले भी गया , बहुत प्रलोभन दिए --तुम मेरी पटरानी बनो , मंदोदरी तुम्हारी सेवा करेगी l सीताजी के आगे वह कितना झुका ! सीताजी ने उसे देखा तक नहीं l लंकापति रावण उनकी एक नजर के लिए भी तरस गया l ऐसी शक्ति किस काम की ! हमारे ऋषियों का आचार्य का कहना है कि मन को जबरन और डंडे के बल पर नियंत्रण में नहीं रखा जा सकता l जबरन नियंत्रित किए गए मन में विस्फोट की संभावना बनी रहती है l स्वयं के अनुभव से अर्थात अब तक जो अनुपयुक्त किया उसके दुष्परिणामों को समझकर और दूसरों की दुर्गति से शिक्षा लेकर भी अपने मन को साधा जा सकता है l भगवान श्रीकृष्ण ने मन की चंचलता पर नियंत्रण रखने का सबसे सरल उपाय बताया , उन्होंने कहा कि निष्काम कर्म से , नि: स्वार्थ सेवा से मन पर जमी मैल की परतें हटती जाती हैं और मन निर्मल हो जाता है l हमारे मन पर जन्म -जन्मान्तर का मैल चढ़ा हुआ है , इसकी धुलाई -सफाई इतनी सरल नहीं है l जब भी कोई इस दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करता है तो मन की गहराई में छुपी हुई गंदगी , नकारात्मकता उछलकर और बाहर आती है , मन को विचलित करने का हर संभव प्रयास होता है , इसे ईश्वर द्वारा ली जाने वाली परीक्षाएं भी कह सकते हैं l ईश्वर के प्रति समर्पण और उनके शब्दों पर श्रद्धा और विश्वास से ही इस बेलगाम मन को नियंत्रित किया जा सकता है l