पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ' प्रेरणाप्रद द्रष्टान्त ' में छोटी -छोटी कथाओं और प्रसंगों के माध्यम से हम सभी को जीवन जीने की कला सिखाई है l उनके विचार हमें पलायन करना नहीं सिखाते l उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से यही सिखाया कि कैसे संसार में रहते हुए , गृहस्थ जीवन जीते हुए एक योगी की भांति जीवन जिया जा सकता है l यदि मनुष्य का मन संसार में है , ऐसे में उसका एकांत में रहना , हिमालय पर जाना व्यर्थ है l मन पर नियंत्रण जरुरी है और वह भी स्वेच्छा से , जबरन नहीं l ----------- सम्राट पुष्यमित्र का अश्वमेध यज्ञ संपन्न हुआ l दूसरी रात अतिथियों की विदाई के उपलक्ष्य में नृत्य -उत्सव रखा गया l महर्षि पतंजलि भी उस उत्सव में सम्मिलित हुए l महर्षि के शिष्य चैत्र को उस आयोजन में महर्षि की उपस्थिति अखर रही थी l उसके मन में लगातार यह विचार आ रहे थे कि महर्षि तो संयम , यम नियम ----- योग की शिक्षा देते हैं और स्वयं नृत्य -संगीत देख रहे हैं l उस समय तो चैत्र ने कुछ नहीं कहा , पर एक दिन जब महर्षि ' योग दर्शन ' पढ़ा रहे थे तब चैत्र ने उनसे कहा ---- " गुरुवर ! क्या नृत्य -गीत के रास -रंग चितवृत्तियों के निरोध में सहायक होते हैं ? " महर्षि ने शिष्य का अभिप्राय समझा और कहा --- " सौम्य ! आत्मा का स्वरुप रसमय है l उसमें उसे आनंद मिलता है और तृप्ति भी l वह रस विकृत न होने पाए और अपने शुद्ध स्वरूप में बना रहे , इसी सावधानी का नाम संयम है l विकार की आशंका से रस का परित्याग कर देना उचित नहीं l क्या कोई किसान पशुओं द्वारा खेत चर लिए जाने के भय से कृषि करना छोड़ देता है ? रस को नहीं उसकी विकृति को हेय माना जाता है l "