' कर्तव्य संसार के लिये और भावनाएं ईश्वर के लिये '
ज्ञान एकदेशीय नहीं है | प्रकृति का हर घटक एवं हर घटनाक्रम कोई -न-कोई सीख देता है | कोई-न-कोई उपदेश एवं सिखावन देता है | यहाँ कुछ भी व्यर्थ नहीं है | पशु-पक्षी भी कुछ कहते हैं , पेड़-पौधे भी कुछ सिखाते हैं | बात इन पर ध्यान देने की है | समूची प्रकृति ही पाठशाला है जो हर पल , हर क्षण हमें कुछ सिखाने-समझाने का प्रयास करती है लेकिन हम स्वार्थ और अहंकार के वशीभूत होकर जहाँ-तहाँ भटकते रहते हैं | कभी-कभी यह स्वार्थ व अहंकार इतना अधिक हो जाता है कि हमारी समझ पशु-पक्षियों से भी गई गुजरी हो जाती है | हम वह सब भी सोचने समझने में असफल रहते हैं जिसे सामान्य पशु-पक्षी तक सोच-समझ लेते हैं |
इस सच को स्पष्ट करने वाली एक संस्कृत नीति कथा है ------
एक व्यापारी श्रुतसेन था | उसके पास बहुत धन-संपदा थी | उसने अपने बेटों को जीवन की सभी सुविधाएँ दीं | परिवार और संबंधियों को बहुत सहायता की | उसे भरोसा था कि वृद्ध होने पर वे उसकी सेवा करेंगे | लेकिन ऐसा नहीं हुआ , जिनकी उसने सहायता की उन्होंने ही उसका व्यापर , धन सब छीन कर घर से निकाल दिया | असहाय श्रुतसेन ने वन में एक मंदिर में शरण ली | उसी समय एक साधु वहां आया और वृक्ष की छाँह में विश्राम करने लगा | वृक्ष पर पक्षियों का बसेरा था पक्षी चहचहा रहे थे | पक्षियों की चहचहाहट में पता नहीं क्या था कि साधु हँसने लगा |
साधु को इस तरह हँसते देख श्रुतसेन ने कहा --" आप तो साधु हैं , मेरी दुर्दशा पर हँसना अच्छा नहीं लगता | " साधु बोला -" मैं आपको देखकर नहीं , इन पक्षियों की बात सुनकर हँस रहा हूँ |" श्रुतसेन ने कहा --" आप पक्षियों की भाषा समझते है ? क्या कह रहें हैं ये ? "
साधु बोला -" ये पक्षी आपकी ही बात कर रहे हैं , कह रहे हैं -यह मनुष्य ईश्वर की प्रतिमा के सामने होकर भी परिवार के बारे में सोच रहा है | अरे ! अपने परिवार का , बच्चों का पालन-पोषण तो सभी करते हैं , यह तो हम सब भी करते हैं , परंतु दुनिया का कोई भी पशु-पक्षी कभी भी अपनी संतान से सेवा-सहायता की अपेक्षा नहीं करता , उनसे कोई प्रतिदान नहीं मांगता | यह मनुष्य होकर भी निष्काम कर्म करना नहीं सीख पाया |
बुद्धिमान वे हैं जो कर्तव्य संसार के लिये करते हैं और भावनाएँ ईश्वर से जोड़ते हैं |
पक्षी कह रहे हैं कि जहाँ श्रुतसेन बैठा है उसके नीचे स्वर्ण मुद्राओं का कलश है | यदि वह इस धन का उपयोग लोकसेवा में करे तो अपने जीवन के उत्तरार्द्ध के साथ यह लोक एवं परलोक भी संवार
सकता है |
निष्काम कर्म ही जीवन का मर्म है |
ज्ञान एकदेशीय नहीं है | प्रकृति का हर घटक एवं हर घटनाक्रम कोई -न-कोई सीख देता है | कोई-न-कोई उपदेश एवं सिखावन देता है | यहाँ कुछ भी व्यर्थ नहीं है | पशु-पक्षी भी कुछ कहते हैं , पेड़-पौधे भी कुछ सिखाते हैं | बात इन पर ध्यान देने की है | समूची प्रकृति ही पाठशाला है जो हर पल , हर क्षण हमें कुछ सिखाने-समझाने का प्रयास करती है लेकिन हम स्वार्थ और अहंकार के वशीभूत होकर जहाँ-तहाँ भटकते रहते हैं | कभी-कभी यह स्वार्थ व अहंकार इतना अधिक हो जाता है कि हमारी समझ पशु-पक्षियों से भी गई गुजरी हो जाती है | हम वह सब भी सोचने समझने में असफल रहते हैं जिसे सामान्य पशु-पक्षी तक सोच-समझ लेते हैं |
इस सच को स्पष्ट करने वाली एक संस्कृत नीति कथा है ------
एक व्यापारी श्रुतसेन था | उसके पास बहुत धन-संपदा थी | उसने अपने बेटों को जीवन की सभी सुविधाएँ दीं | परिवार और संबंधियों को बहुत सहायता की | उसे भरोसा था कि वृद्ध होने पर वे उसकी सेवा करेंगे | लेकिन ऐसा नहीं हुआ , जिनकी उसने सहायता की उन्होंने ही उसका व्यापर , धन सब छीन कर घर से निकाल दिया | असहाय श्रुतसेन ने वन में एक मंदिर में शरण ली | उसी समय एक साधु वहां आया और वृक्ष की छाँह में विश्राम करने लगा | वृक्ष पर पक्षियों का बसेरा था पक्षी चहचहा रहे थे | पक्षियों की चहचहाहट में पता नहीं क्या था कि साधु हँसने लगा |
साधु को इस तरह हँसते देख श्रुतसेन ने कहा --" आप तो साधु हैं , मेरी दुर्दशा पर हँसना अच्छा नहीं लगता | " साधु बोला -" मैं आपको देखकर नहीं , इन पक्षियों की बात सुनकर हँस रहा हूँ |" श्रुतसेन ने कहा --" आप पक्षियों की भाषा समझते है ? क्या कह रहें हैं ये ? "
साधु बोला -" ये पक्षी आपकी ही बात कर रहे हैं , कह रहे हैं -यह मनुष्य ईश्वर की प्रतिमा के सामने होकर भी परिवार के बारे में सोच रहा है | अरे ! अपने परिवार का , बच्चों का पालन-पोषण तो सभी करते हैं , यह तो हम सब भी करते हैं , परंतु दुनिया का कोई भी पशु-पक्षी कभी भी अपनी संतान से सेवा-सहायता की अपेक्षा नहीं करता , उनसे कोई प्रतिदान नहीं मांगता | यह मनुष्य होकर भी निष्काम कर्म करना नहीं सीख पाया |
बुद्धिमान वे हैं जो कर्तव्य संसार के लिये करते हैं और भावनाएँ ईश्वर से जोड़ते हैं |
पक्षी कह रहे हैं कि जहाँ श्रुतसेन बैठा है उसके नीचे स्वर्ण मुद्राओं का कलश है | यदि वह इस धन का उपयोग लोकसेवा में करे तो अपने जीवन के उत्तरार्द्ध के साथ यह लोक एवं परलोक भी संवार
सकता है |
निष्काम कर्म ही जीवन का मर्म है |
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