पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कहना है --- ' समर्थ होने , शक्तिसम्पन्न होने से अधिक जरुरी है सद्गुण संपन्न होना , क्योंकि सद्गुणों के अभाव में शक्ति के दुरुपयोग की संभावना हमेशा बनी रहती है l गुणहीन व्यक्तियों के पास जो भी शक्ति आती है , वो हमेशा दुरूपयोग करते हैं , फिर चाहे यह शक्ति सामाजिक हो , राजनीतिक हो या फिर वैज्ञानिक अथवा आध्यात्मिक हो l इसलिए पहले सद्गुण , फिर शक्ति l व्यक्ति का व्यक्तित्व समर्थ - बलशाली होने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है उसका सदगुणसम्पन्न होना , गुणवान होना , मानवीय मूल्यों के प्रति सचेष्ट एवं समर्पित होना l '
रामचरितमानस में दो व्यक्तित्व हैं ---- एक हैं वानरराज बालि और दूसरे अंजनी पुत्र हनुमान l इन दोनों में हनुमानजी का ज्ञान बालि से कहीं अधिक था l
बालि को बल पर संयम करने की असाधारण क्षमता प्राप्त थी , इस वजह से जो भी प्रतिपक्षी उसके सामने आता , बालि उसकी समस्त शक्तियों को स्वयं में आत्मसात कर लेता था l उसका स्वयं का बल तो उसके पास था ही l इस तरह उसके सामने प्रतिपक्षी योद्धा का बल घटकर आधा रह जाता था और बालि का स्वयं का बल ड्योढ़ा - दूना हो जाता l इस तरह बालि की विजय सुनिश्चित होती और प्रतिपक्षी की पराजय सुनिश्चित l इस शक्ति ने बालि को अहंकारी और दम्भी बना दिया था l उसने अपने छोटे भाई सुग्रीव का उससे सब कुछ छीन लिया l प्रकृति किसी के अहंकार को बर्दाश्त नहीं करती l प्रकृति के दंडविधान के अनुरूप बालि को दण्डित होना पड़ा l हनुमानजी की सहायता से भगवान श्रीराम ने उसे दण्डित किया l बालि की उस शक्ति की वजह से भगवान को भी उसे छिपकर मारना पड़ा , क्योंकि प्रत्यक्ष होने पर संभावना यही थी कि बालि के पास उनका भी आधा बल चला जाता l
बालि के स्वभाव के ठीक विपरीत हनुमानजी भगवान के परम भक्त एवं विनम्र थे l जन - सेवा , ईश्वर - सेवा उनका ध्येय था l प्रकृति के सभी देवी - देवताओं का उन्हें आशीर्वाद प्राप्त था , असाधारण क्षमता संपन्न थे l परन्तु हनुमानजी को अपने बल पर कोई अभिमान नहीं था इसलिए वे प्रभु की योजना व कार्य में उनके सहयोगी बने l उनसे सभी का कल्याण हुआ l आज भी वह अपने सद्गुणों व शक्ति के कारण अनगिनत जनों के आराध्य हैं l
आचार्य श्री लिखते हैं --- संयम की योग्यता , शक्ति और उसके सदुपयोग के आदर्श हैं - हनुमान जी , जिन्होंने अपनी शक्तियों का उपयोग सदा ही लोक - कल्याण में किया l उनके जीवन का एक ही
ध्येय वाक्य था ---- ' राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम l
रामचरितमानस में दो व्यक्तित्व हैं ---- एक हैं वानरराज बालि और दूसरे अंजनी पुत्र हनुमान l इन दोनों में हनुमानजी का ज्ञान बालि से कहीं अधिक था l
बालि को बल पर संयम करने की असाधारण क्षमता प्राप्त थी , इस वजह से जो भी प्रतिपक्षी उसके सामने आता , बालि उसकी समस्त शक्तियों को स्वयं में आत्मसात कर लेता था l उसका स्वयं का बल तो उसके पास था ही l इस तरह उसके सामने प्रतिपक्षी योद्धा का बल घटकर आधा रह जाता था और बालि का स्वयं का बल ड्योढ़ा - दूना हो जाता l इस तरह बालि की विजय सुनिश्चित होती और प्रतिपक्षी की पराजय सुनिश्चित l इस शक्ति ने बालि को अहंकारी और दम्भी बना दिया था l उसने अपने छोटे भाई सुग्रीव का उससे सब कुछ छीन लिया l प्रकृति किसी के अहंकार को बर्दाश्त नहीं करती l प्रकृति के दंडविधान के अनुरूप बालि को दण्डित होना पड़ा l हनुमानजी की सहायता से भगवान श्रीराम ने उसे दण्डित किया l बालि की उस शक्ति की वजह से भगवान को भी उसे छिपकर मारना पड़ा , क्योंकि प्रत्यक्ष होने पर संभावना यही थी कि बालि के पास उनका भी आधा बल चला जाता l
बालि के स्वभाव के ठीक विपरीत हनुमानजी भगवान के परम भक्त एवं विनम्र थे l जन - सेवा , ईश्वर - सेवा उनका ध्येय था l प्रकृति के सभी देवी - देवताओं का उन्हें आशीर्वाद प्राप्त था , असाधारण क्षमता संपन्न थे l परन्तु हनुमानजी को अपने बल पर कोई अभिमान नहीं था इसलिए वे प्रभु की योजना व कार्य में उनके सहयोगी बने l उनसे सभी का कल्याण हुआ l आज भी वह अपने सद्गुणों व शक्ति के कारण अनगिनत जनों के आराध्य हैं l
आचार्य श्री लिखते हैं --- संयम की योग्यता , शक्ति और उसके सदुपयोग के आदर्श हैं - हनुमान जी , जिन्होंने अपनी शक्तियों का उपयोग सदा ही लोक - कल्याण में किया l उनके जीवन का एक ही
ध्येय वाक्य था ---- ' राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम l
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