29 August 2024

WISDOM ------

   पं . श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ----"  आकांक्षाएं  अपने  आप  में  बुरी  नहीं  हैं   यदि  उनका  नियोजन  सदुद्देश्य  में  किया  जाए  l  इनसे  जीवन  में   क्रियाशीलता   बनी  रहती  है   l   महान  बनने   का  प्रयत्न  एक  साधना है  , इसमें  व्यक्ति  को  गुणवान  बनने  के  लिए  लगातार  पुरुषार्थ  करना  पड़ता  है   किन्तु  महत्वकांक्षी  व्यक्ति  की  रूचि  इन  कष्ट  साध्य  प्रयत्नों  में  नहीं  होती  l  महानता  के  महत्त्व  को  वह  जैसे -तैसे  पाना  चाहता  है  , ताकि  लोग  उसे  भी  प्रणाम  करें  , गरिमापूर्ण  समझें  l   आचार्य श्री  आगे  लिखते  हैं ---" इतिहास  ऐसे  लोगों  के  क्रियाकलापों  से  भरा  है  जिन्होंने  महत्त्व  को  अपनी  झोली  में  डालने  के  लिए  जो  कुछ  किया  , उससे  मानवता  का  सिर  शर्म  से  झुक  जाता  है  l  सिकंदर , हिटलर  आदि  राजाओं    को    विश्व विजयी  होने  का  सम्मान  पाने  के  लिए  लाखों -करोड़ों   लोगों  को   मारने -काटने  में  तनिक  भी  तकलीफ  नहीं  हुई  l  इतिहास  में  ऐसे  अनेक  उदाहरण   हैं    जहाँ  पिता  को   मारकर    सिंहासन  हासिल  किया  l  इसी  तरह  धार्मिक  महत्वाकांक्षा  किसी  भी  व्यक्ति  को  धूर्त  और  पाखंडी  बना  देने  के  लिए  काफी  है  l  इस  क्षेत्र  के  लिए  तपोमय  जीवन  की  अनिवार्यता  है  ,  उसके  लिए  तो  हिम्मत  नहीं  पड़ती  l  धार्मिक  होने  का  महत्त्व  पाने  की  महत्वाकांक्षा  ने  लाखों  गुरु , भगवान  पैदा  कर  दिए  l  सामाजिक  क्षेत्र  में  भी  महत्त्व   लूटने    की  चाह  में  नकली  समाजसेवी  पनपते  हैं  l  आचार्य श्री  लिखते  हैं  ----' महत्त्व  को  पाने  की  ललक  एक  ऐसा  विष  है  , जो  जिस  क्षेत्र  में  घुलेगा  उसे   विषैला  बनाएगा  l  इसकी  तोह  में  लगा  आदमी  अन्दर  से  नीति , मर्यादाओं  और  अनुशासन  की  अवहेलना  करते  हुए  बाहर  से  नैतिक , मर्यादित   और  अनुशासन प्रिय  दिखाने  का  प्रयत्न  करता  है  l  इस  तरह  नैतिकता  या  अच्छाई  का  खोल  ओढ़े  लोगों  से   समाज  और  राष्ट्र  को  सबसे  अधिक  खतरा  है  l  पाप  को  पाप  समझ  लेने  के  बाद  उससे  बचा  जा  सकता  है  लेकिन  जो  पाप  पुण्य  की  आड़  में  किया  जाता  है  , उससे  बच  पाना  बहुत  कठिन  है  l  शत्रु  से  बचाव  आसान  है  ,  पर  मित्र  बने  शत्रु  से  बच  पाना  असंभव  है  l  डाकू  को  पहचानना   और  उससे  बचना  सामान्य  क्रम  है  ,  किन्तु   साधु  के  वेश  में  घूमने  वाले  डाकू  से  बच  पाना  आसान  नहीं  है  l  डाकू  संसार  की  जितनी  हानि  नहीं  करते   तथाकथित  सफेदपोश उससे  कहीं  अधिक  परेशानी  खड़ी  करते  हैं  l  ऐसे  लोग  अपनी  स्थिति  से  कभी  संतुष्ट  नहीं  होते  हैं  , क्योंकि  उन्हें  हमेशा  यही  भय  बना  रहता  है  कि  कहीं  भेद  न  खुल  जाए  l  "

No comments:

Post a Comment