पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- ध्वंस सरल है l उसे छोटी चिनगारी एवं सड़ी कील भी कर सकती है l गौरव सृजनात्मक कार्यों में है l मनुष्य का चिंतन और प्रयास सृजनात्मक प्रयोजनों में ही निरत रहना चाहिए l ' आचार्य श्री लिखते हैं कि अहंकार और अति महत्वाकांक्षा व्यक्ति के विवेक का हरण कर लेते हैं , उसकी बुद्धि , दुर्बुद्धि में बदल जाती है और वह गलत राह पर चल देता है l इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जैसे ----- सिकन्दर शक्तिमंत था , सारे विश्व को अपने पैरों तले लाने की महत्वाकांक्षा उस पर प्रेत की तरह सवार हो गई , जिसने उसे आततायी बना दिया l स्वयं को विश्व विजेता सिद्ध करने के लिए उसने असंख्यों का रक्त बहाया , कितनी ही माताओं की गोद सूनी कर दी , कितने ही बच्चों को अनाथ कर दिया l न स्वयं चैन से बैठा , न अपने सैनिकों को चैन से बैठने दिया और न ही दूसरे राजाओं को l आचार्य श्री लिखते हैं ----- ' केवल स्वार्थ और मिथ्याभिमान से प्रेरित होकर किया गया काम कितना ही बड़ा क्यों न हो न तो उस व्यक्ति को ही सुखी और संतुष्ट कर सकता है और न मानव समाज को ही कुछ दे सकता है l ' जब उसके जीवन का अंतिम समय आया तो वह विक्षिप्त सा हो गया l विचारों से मुक्त होने के लिए उसने शराब का सहारा लिया l कोई कितना ही बड़ा अजेय योद्धा हो , क्या मृत्यु से कोई बचा है ?
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