11 June 2024

WISDOM ---------

   श्रीमद् भगवद्गीता  का  ज्ञान  हमें  जीवन  जीने  की  कला  सिखाता  है  l  सामान्य  द्रष्टि  से  हम  नहीं  समझ   पाते  कि  परिवार , समाज  में  हम  जिन  लोगों  के  बीच  रहते  हैं   उनमे  कौन  देवता  है  और  कौन  असुर  है  ?  लेकिन  गीता  का  ज्ञान  हमें   यह  समझ  देता  है  कि  हमारे  आसपास  कौन  असुर  है  ,  हम  उन्हें  पहचान  लें  और  उनसे  दूरी  बना  कर  रखें  l  पं . श्रीराम  शर्मा जी  ने  लिखा  है --- 'दुर्जन  से  न  वैर करो  न  प्रीति  'l  दुष्ट  के  काटने  और   चाटने  दोनों  में  दुःख  ही  दुःख  है  l  गोस्वामी  तुलसीदासजी  लिखते  हैं ---- बरु  भल  बास  नरक  कर  ताता  l  दुष्ट  संग   जनि  देइ  विधाता  l  अर्थात  विधाता  हमें  नरक  का  वास  दे  दें   पर  दुष्टों  का  संग  कभी  न  दें   क्योंकि  नरक  के   वास  से  तो  कर्मों  की  शुद्धि  होती  है  , पाप  नष्ट  होते  हैं   लेकिन  दुष्टों  के  संग  से  तो  नए  पापों  का   निर्माण  होता  है   और  ऐसे  कर्मों  के  परिणामों  की   श्रंखला  शुरू  होती  है  ,  जो  अनंत  काल  तक  चलती  है  l  '      कलियुग  में  तो   चारों  ओर  असुरता  का  ही  साम्राज्य  है  l  हम  कम  से  कम  अपने  ही  आसपास   देखें  और  समझें     फिर  आसुरी  प्रवृत्ति  के  लोगों  से  दूरी  बना  कर  रखें  l  आसुरी  प्रवृत्ति  को  पहचाने  कैसे  ?    श्रीमद् भगवद्गीता  में  भगवान  श्रीकृष्ण  अर्जुन  से  कहते  हैं ---- "    आसुरी  मनुष्य  अकारण  ही  सबसे  बैर  रखते  हैं   और  बिना  किसी  प्रयोजन  के  दूसरों   के  अनिष्ट  का  भाव   मन  में  बैठाये  रखते  हैं   और  वे  केवल  भाव  ही  नहीं  रखते   , बल्कि  वे  अनिष्ट  करने  पर  तुल  ही  जाते  हैं  ,  इसलिए  उनके  कर्म  क्रूर , नृशंस ,  निर्दयतापूर्ण  और  हिंसक  होते  हैं  l  ऐसे  मनुष्यों  को  भगवान  ' नराधम '  कहते  हैं  l    श्री  भगवान  कहते  हैं ---- मनुष्यों   की  आसुरी  वृत्ति   उनके  भीतर  अहंकार  के  भाव  को  सघन  कर  देती  है  l  इस  अहंकार  के  कारण   वे  अपने  बल  का  प्रयोग  दूसरों  को  परेशान  करने  , मारने -पीटने , धमकाने  , सताने  में  करते  है  l  काम  का  आश्रय  लेकर  दुराचार  करते  हैं   और  क्रोध  के  कारण   वे  कहते  हैं   कि  जो  भी  हमारे  प्रतिकूल  चलेगा  हम  उसका  अनिष्ट  करेंगे  l  ऐसे  मनुष्य  फिर   अपनी  समस्त  ऊर्जा   दूसरों  के  दोष  देखने   में , उनकी  निंदा  करने  में  ,  उनके  प्रति  द्वेष  रखने  में   लगा  देते  हैं  l   ऐसी  प्रकृति  वाले  मनुष्य  भगवान  से  भी  द्वेष  रखते  हैं  , स्वयं  को  ही  श्रेष्ठतम   मानते  हैं  l  कामना , वासना  और  महत्वाकांक्षा  के   आधिक्य  के  कारण  ऐसे  लोगों  में  आसुरी  वृत्ति  की  बहुलता   हो   जाती  है , धन  बढ़ने  के  साथ   यह  भाव  उनमें  पनपने  लगता  है   दूसरों  को  धन  न  मिले  l  वे  दूसरों  का  धन  भी  हड़प  लेने  के  लिए  क्रूर  कर्म  करते  हैं  l  धीरे -धीरे  उनका  स्वभाव  राक्षसी  होता  चला  जाता  है  l  यह  राह  पतन  की  ओर  जाती  है   और  अंततः  वे  . नराधम '  बन  जाते  हैं  l  ऐसे  लोग  ईश्वर  से  द्वेष  रखते  हैं , लेकिन  भगवान  किसी  से  भी  द्वेष  नहीं  रखते  , वे  उन्हें  सुधरने  का  बार बार  मौका  देते  हैं   और  वे  उन्हें  ऐसी  योनियों  में  जन्म  देते  हैं   ताकि   वे  अपने  पापों  को  शुद्ध  कर  के   स्वयं  को  निर्मल  बना  सकें  l  

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