श्रीमद् भगवद्गीता का ज्ञान हमें जीवन जीने की कला सिखाता है l सामान्य द्रष्टि से हम नहीं समझ पाते कि परिवार , समाज में हम जिन लोगों के बीच रहते हैं उनमे कौन देवता है और कौन असुर है ? लेकिन गीता का ज्ञान हमें यह समझ देता है कि हमारे आसपास कौन असुर है , हम उन्हें पहचान लें और उनसे दूरी बना कर रखें l पं . श्रीराम शर्मा जी ने लिखा है --- 'दुर्जन से न वैर करो न प्रीति 'l दुष्ट के काटने और चाटने दोनों में दुःख ही दुःख है l गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं ---- बरु भल बास नरक कर ताता l दुष्ट संग जनि देइ विधाता l अर्थात विधाता हमें नरक का वास दे दें पर दुष्टों का संग कभी न दें क्योंकि नरक के वास से तो कर्मों की शुद्धि होती है , पाप नष्ट होते हैं लेकिन दुष्टों के संग से तो नए पापों का निर्माण होता है और ऐसे कर्मों के परिणामों की श्रंखला शुरू होती है , जो अनंत काल तक चलती है l ' कलियुग में तो चारों ओर असुरता का ही साम्राज्य है l हम कम से कम अपने ही आसपास देखें और समझें फिर आसुरी प्रवृत्ति के लोगों से दूरी बना कर रखें l आसुरी प्रवृत्ति को पहचाने कैसे ? श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं ---- " आसुरी मनुष्य अकारण ही सबसे बैर रखते हैं और बिना किसी प्रयोजन के दूसरों के अनिष्ट का भाव मन में बैठाये रखते हैं और वे केवल भाव ही नहीं रखते , बल्कि वे अनिष्ट करने पर तुल ही जाते हैं , इसलिए उनके कर्म क्रूर , नृशंस , निर्दयतापूर्ण और हिंसक होते हैं l ऐसे मनुष्यों को भगवान ' नराधम ' कहते हैं l श्री भगवान कहते हैं ---- मनुष्यों की आसुरी वृत्ति उनके भीतर अहंकार के भाव को सघन कर देती है l इस अहंकार के कारण वे अपने बल का प्रयोग दूसरों को परेशान करने , मारने -पीटने , धमकाने , सताने में करते है l काम का आश्रय लेकर दुराचार करते हैं और क्रोध के कारण वे कहते हैं कि जो भी हमारे प्रतिकूल चलेगा हम उसका अनिष्ट करेंगे l ऐसे मनुष्य फिर अपनी समस्त ऊर्जा दूसरों के दोष देखने में , उनकी निंदा करने में , उनके प्रति द्वेष रखने में लगा देते हैं l ऐसी प्रकृति वाले मनुष्य भगवान से भी द्वेष रखते हैं , स्वयं को ही श्रेष्ठतम मानते हैं l कामना , वासना और महत्वाकांक्षा के आधिक्य के कारण ऐसे लोगों में आसुरी वृत्ति की बहुलता हो जाती है , धन बढ़ने के साथ यह भाव उनमें पनपने लगता है दूसरों को धन न मिले l वे दूसरों का धन भी हड़प लेने के लिए क्रूर कर्म करते हैं l धीरे -धीरे उनका स्वभाव राक्षसी होता चला जाता है l यह राह पतन की ओर जाती है और अंततः वे . नराधम ' बन जाते हैं l ऐसे लोग ईश्वर से द्वेष रखते हैं , लेकिन भगवान किसी से भी द्वेष नहीं रखते , वे उन्हें सुधरने का बार बार मौका देते हैं और वे उन्हें ऐसी योनियों में जन्म देते हैं ताकि वे अपने पापों को शुद्ध कर के स्वयं को निर्मल बना सकें l
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