19 August 2025

WISDOM -----

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 आचार्य  ज्योतिपाद  संध्या  के  बाद  उठे  ही  थे  कि  एक  ब्राह्मण  , जिसका  नाम  आत्मदेव  था  , उसने  उनके  चरण  पकड़  लिए  l  वह  बोला  --- " आप  सर्वसमर्थ  हैं  , एक  संतान  दे  दीजिए  l  आपका  जीवन  भर  ऋणी  रहूँगा  l "  आचार्य  बोले  ---" संतान  से  सुख  पाने  की  कामना  व्यर्थ  है  l  तुम्हारे  भाग्य  में  संतान  नहीं  है  l   जिसने   पूर्व जन्म  में  अपनी  संपत्ति  को  लोकहित  में  नहीं  लगाया  , वह  अगले  जन्म  में  संतानहीन  होता  है  l  संतान  दैवयोग  से  मिल  भी  गई   तो  उसका  कोई  औचित्य  नहीं  है  l  "   लेकिन  आत्मदेव  ने  उनके  चरण  नहीं  छोड़े   और  बोला  ---- " या तो  पुत्र  लेकर  लौटूंगा   या  आत्मदाह  कर  लूँगा  l "  आचार्य  ने  कहा  --- " श्रेष्ठ  आत्माएं  ऐसे  ही    नहीं  आतीं  l  यदि  विधाता  की  ऐसी  ही  इच्छा  है   तो  यह  फल  तुम  अपनी  पत्नी  को  खिलाना   और  धर्मपत्नी  से  कहना   कि  वह   एक  वर्ष  तक  नितांत  पवित्र  रहकर   दान -पुण्य  करे  l "  आत्मदेव  प्रसन्न  भाव  से  लौटा   और  फल  अपनी  पत्नी  धुंधली  को   दे  दिया   और  जैसा  आचार्य ने  कहा  था  उसे  पवित्र  आचरण  करने  को  कहा  l   पत्नी  धुंधली  ने  सोचा  --पवित्रता  का  आचरण  और  दान  , और  वह  भी  वर्षभर  , मैं  न  कर  सकुंगी  l  उसने  वह  फल  गाय  को  खिला  दिया  l  समय  पर  बहन  का  पुत्र  गोद  ले  लिया  , घोषणा  कर  दी  कि  पुत्र  हुआ  , उसका  नाम  धुंधकारी  रखा  l  बाल्यावस्था  से  ही   वह  दुराचारी , जुआ  खेलने  वाला  , भोगी , दुराचारी  निकला  l  माता -पिता  कुढ़कर  , दुःख  में  मर  गए  , वह  भी  अकालमृत्यु  को  प्राप्त  हुआ  l  जीवन  में  किए  गए  पापों  के  कारण   वह  प्रेत योनि  को  प्राप्त  हुआ  l  धुंधली  ने  जिस  गाय  को  वह  फल  खिलाया  था   उस  गोमाता  ने  गोकर्ण  नामक  पुत्र  को  जन्म  दिया  l   वह  परम  विद्वान  और  धर्मात्मा  था  , उसने  प्रेत योनि  में  पड़े   धुंधकारी  को  भागवत  कथा   सुनाकर   मुक्त  कराया  l   









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17 August 2025

WISDOM ------

  अपनी  शक्ति  के  बल  पर  किसी  भूभाग  को  जीतना  ,  लोगों  को  अपना  गुलाम  बनाना  बहुत  सरल  है   लेकिन  अपने  ही  मन  को   काबू  में  रखना  , उसकी  लगाम  अपने  हाथ  में  रखना  सबसे  कठिन  कार्य  है  l   कोई  कितना  भी  शक्तिशाली  क्यों  न  हो  यदि  उसका  अपनी  कामना , वासना  , तृष्णा , महत्वाकांक्षा, अहंकार     जैसे  विकारों  पर  नियंत्रण  नहीं  है   तो  वह  इन  विकारों  के  वशीभूत  होकर  किसी  न  किसी  की  गुलामी  अवश्य  करेगा  l  जैसे  रावण  कितना  शक्तिशाली  और  ज्ञानी  था   लेकिन  उसका  अपने  मन  पर  नियंत्रण  नहीं  था  l  सीताजी  को  पाने  के  लिए  अपनी  लंका  छोड़कर  , भिखारी  बनकर   , सबसे  छुपते -छिपाते   कटोरा  लेकर   पर्णकुटीर  आ  गया  l  अपनी  धूर्तता  के  बल  पर  वह  उन्हें  लंका  ले  भी  गया  , बहुत  प्रलोभन  दिए  --तुम  मेरी  पटरानी  बनो , मंदोदरी  तुम्हारी  सेवा  करेगी  l  सीताजी  के  आगे  वह  कितना  झुका  !  सीताजी  ने  उसे  देखा  तक  नहीं  l  लंकापति  रावण  उनकी  एक  नजर  के  लिए  भी  तरस  गया  l  ऐसी  शक्ति  किस  काम  की  !     हमारे  ऋषियों  का   आचार्य का  कहना   है कि  मन  को  जबरन  और  डंडे  के  बल  पर  नियंत्रण  में  नहीं  रखा  जा  सकता  l  जबरन  नियंत्रित  किए  गए  मन  में  विस्फोट  की  संभावना  बनी  रहती  है  l  स्वयं  के  अनुभव  से   अर्थात  अब  तक  जो  अनुपयुक्त  किया  उसके  दुष्परिणामों  को  समझकर   और  दूसरों  की  दुर्गति  से  शिक्षा  लेकर  भी   अपने  मन  को  साधा  जा  सकता  है  l  भगवान  श्रीकृष्ण  ने  मन  की  चंचलता  पर  नियंत्रण  रखने  का  सबसे  सरल  उपाय  बताया , उन्होंने  कहा  कि  निष्काम  कर्म  से , नि: स्वार्थ  सेवा  से   मन  पर  जमी   मैल   की  परतें  हटती  जाती  हैं   और  मन  निर्मल  हो  जाता  है  l  हमारे  मन  पर  जन्म -जन्मान्तर  का  मैल  चढ़ा  हुआ  है  ,  इसकी  धुलाई -सफाई  इतनी  सरल  नहीं  है  l  जब  भी  कोई   इस  दिशा  में  आगे  बढ़ने  का  प्रयास  करता  है   तो  मन  की  गहराई  में  छुपी  हुई  गंदगी , नकारात्मकता  उछलकर  और  बाहर  आती  है  ,  मन  को  विचलित  करने  का  हर  संभव  प्रयास  होता  है  ,  इसे  ईश्वर  द्वारा  ली  जाने  वाली  परीक्षाएं  भी  कह  सकते   हैं  l  ईश्वर  के  प्रति    समर्पण  और  उनके  शब्दों  पर  श्रद्धा  और  विश्वास  से  ही   इस  बेलगाम  मन  को  नियंत्रित  किया  जा  सकता  है  l  

9 August 2025

WISDOM -----

   मानव  जीवन  में  आज  जितनी  भी  समस्याएं  हैं  ,  वे  कोई  नई  समस्या  नहीं  है  ,  ये  सब  युगों  से  चली  आ  रहीं  हैं  l   मानसिक   विकृतियां   जन्म -जन्मान्तर  के  संस्कार  हैं   जो  पीछा  नहीं  छोड़ते  l  समाज  में  , परिवार  में  जो  भी  अपराध  होते  हैं  ,  यदि  निष्पक्ष  भाव  से   सर्वे  किया  जाए  तो  यह  सत्य  सामने  आएगा  कि  उनकी   पूर्व  की  6 -7   पीढ़ियों  में  भी  लोग  इसी  तरह  के  अपराधों  में  संलग्न  रहे  हैं  l  बुरी  आदतें   संस्कार  बनकर  पीढ़ी -दर -पीढ़ी  आ   जाती   हैं  l  जब  तक  मनुष्य    संकल्प  लेकर   स्वयं  को  सुधारने  का  प्रयत्न  न  करे  सुधार  संभव  नहीं  है   ईर्ष्या , द्वेष , अहंकार , स्वार्थ , लालच , महत्वाकांक्षा   जैसे  विकारों  के  कारण  ही  अशांति  है  l  सबसे  बड़ी  समस्या  यह  है  कि  आज  मनुष्य  किसी  को  खुश  नहीं  देख  सकता  l  त्रेतायुग  में  भी   यही  था  , मंथरा  को  ईर्ष्या  थी   वह  श्रीराम  को  राजगद्दी  पर   और  सीताजी  को  महारानी  के  रूप  में  नहीं  देख  सकती  थी   इसलिए  उसने  कैकयी  के  कान  भरे   कि  राम  के  लिए  राजा  दशरथ  से  वनवास  मांगो   और  भारत  के  लिए  राजगद्दी  l    अपनी  बातों  से  किसी  के  माइंड  को  वाश  कर  देना   यह  तकनीक  युगों  से  चली  आ  रही  है  l  महाभारत  में  शकुनि  ने  भी  इसी  तरह  दुर्योधन  के  मन  में  पांडवों   के  लिए  ईर्ष्या , द्वेष  भर  दिया  था  l  इसी  तकनीक  का  प्रयोग  कर  के   ईर्ष्यालु  लोग  किसी  का  घर  तोड़ते  हैं  ,  पति -पत्नी  में  झगड़े   और  परिवारों  में  क्लेश   कराते    हैं  l  हर  किसी  का  मन  इतना  मजबूत  नहीं  होता  ,  अधिकांश  लोग  कान  के  कच्चे  होते  हैं  और  बड़ी  जल्दी  दूसरों  की  बातों  में  आकर  अपना  ही  नुकसान  करा  लेते  हैं   l   जब  तक  मनुष्य  को  ईश्वर  का  और  अपने  कर्मों  के  परिणाम  का  भय  नहीं  होगा   स्थिति  में  सुधार  संभव  नहीं  है  ,  मनुष्य  इतिहास  से  शिक्षा  नहीं  लेता  ,  गलतियों  को  बार -बार  दोहराता  है  l  

8 August 2025

WISDOM -----

    पं . श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  ने  ' प्रेरणाप्रद  द्रष्टान्त  ' में   छोटी -छोटी  कथाओं  और  प्रसंगों  के  माध्यम  से    हम  सभी  को  जीवन  जीने  की  कला  सिखाई  है  l  उनके  विचार  हमें  पलायन  करना  नहीं  सिखाते  l  उन्होंने  अपने  साहित्य  के  माध्यम  से  यही  सिखाया  कि  कैसे  संसार  में  रहते  हुए  , गृहस्थ  जीवन   जीते  हुए  एक  योगी  की  भांति  जीवन  जिया  जा  सकता  है  l  यदि  मनुष्य  का  मन  संसार  में  है  , ऐसे  में  उसका  एकांत  में  रहना , हिमालय  पर  जाना  व्यर्थ  है  l  मन  पर  नियंत्रण  जरुरी  है  और  वह  भी  स्वेच्छा  से  , जबरन  नहीं  l ----------- सम्राट   पुष्यमित्र  का  अश्वमेध  यज्ञ   संपन्न  हुआ  l  दूसरी   रात  अतिथियों  की  विदाई  के  उपलक्ष्य  में    नृत्य -उत्सव    रखा  गया  l  महर्षि  पतंजलि  भी  उस  उत्सव  में  सम्मिलित  हुए  l  महर्षि  के  शिष्य  चैत्र  को   उस  आयोजन  में  महर्षि  की  उपस्थिति   अखर    रही  थी  l  उसके  मन  में  लगातार  यह  विचार  आ  रहे  थे  कि  महर्षि   तो  संयम , यम नियम    ----- योग  की  शिक्षा  देते  हैं   और  स्वयं   नृत्य -संगीत    देख  रहे  हैं  l  उस  समय  तो  चैत्र  ने   कुछ  नहीं  कहा  ,  पर  एक  दिन  जब  महर्षि  ' योग दर्शन  '  पढ़ा  रहे  थे   तब  चैत्र  ने   उनसे  कहा ---- "  गुरुवर  !  क्या  नृत्य -गीत  के  रास -रंग  चितवृत्तियों   के  निरोध  में  सहायक  होते  हैं   ?  "  महर्षि  ने  शिष्य  का  अभिप्राय  समझा   और  कहा  --- " सौम्य  !   आत्मा  का  स्वरुप  रसमय  है  l  उसमें  उसे  आनंद  मिलता  है  और  तृप्ति  भी   l  वह  रस  विकृत  न  होने  पाए   और  अपने  शुद्ध  स्वरूप  में  बना  रहे  ,  इसी  सावधानी  का  नाम  संयम  है   l   विकार  की  आशंका  से  रस  का  परित्याग   कर  देना  उचित  नहीं   l  क्या  कोई  किसान  पशुओं  द्वारा  खेत  चर   लिए  जाने  के  भय  से   कृषि  करना  छोड़  देता  है  ?   रस  को  नहीं  उसकी  विकृति  को  हेय    माना  जाता  है  l "  

5 August 2025

WISDOM -----

 भगवान  बुद्ध  अपने  ज्ञान  का  प्रकाश  संसार  को  दे  रहे  थे  l  एक  सेठ  भी  उनका  प्रवचन  नियमित  सुनता  था  l  उसने  तथागत  से  कहा --- भगवन  ! मैं  नियमित  प्रवचन  सुनता  हूँ  लेकिन  मेरे  मन  में  शांति  नहीं  है  l  ईश्वर की  कृपा  कैसे मिले   ?  महात्मा  बुद्ध  ने  उस  समय  तो  कुछ  नहीं  कहा  l  दूसरे  दिन  वे  उस  सेठ  के  घर   पहुंचे  ,   उनके  आने  की   सूचना    मिलने  पर  उसने  बड़े  प्रेम  से  उनके  लिए  खीर  बनवाई  और  उनके  कमंडल  में   देने  लगा  l  उसने  आश्चर्य  से  देखा कि  कमंडल  में  तो  गोबर  भरा  हुआ  है  l  उसने  कमंडल  उठाया  , उसे  अच्छी  तरह  साफ़  किया  , फिर  उसमें  खीर   रखी  l  खीर  रखने  के  बाद  वह  तथागत  से  बोला  ---- " भगवन  !  कहीं  भिक्षा  हेतु  पधारा करें  तो   अपना  कमंडल  साफ़  करके  ही  लाया करें  l  गंदे पात्र  में  खीर  रखने  से   आहार  की   पवित्रता   नष्ट  हो  जाएगी  l  " भगवान  बुद्ध  शांत  भाव  से  बोले --- " वत्स  !  भविष्य  में  कभी  आऊंगा  तो  कमंडल  साफ  कर  के  ही  लाऊंगा  l  तुम  भी  अपना  कमंडल  साफ  रखा  करो  l "  सेठ  ने  आश्चर्य  से  कहा --- " कौन  सा  कमंडल  ? "  तथागत  बोले  ---- "  यह  तन  रूपी  कमंडल   !  मन  में  मलिनता  भरी  रहने  से   जीवन  भी  कलुषित  हो  जाता  है  l  मन  को  शांति  नहीं  मिलती  और  भगवान  की  कृपा  भी  उसमें  ठीक  से  कार्य  नहीं  करती  l  "  सेठ  को  बात  समझ  में  आ  गई   और  अब  वह  भी   अपने   दोष -दुर्गुणों  को  मिटाने  में  जुट  गया  l  

4 August 2025

WISDOM -----

   संसार  के  लगभग  सभी  देशों  में   धर्म , जाति , रंग ,  ऊँच -नीच , अमीर -गरीब  आदि  के  आधार  पर   भेदभाव   प्राचीन  काल  से  ही  रहा  है   और  इस  वैज्ञानिक  युग  में  भी   इस  प्रकार  के  भेदभाव  समाप्त  नहीं  हुए  l  ऐसी  बेवजह  की  बातों  पर  विवाद , युद्ध , दंगे  आदि  कर  के  मनुष्य  ने   बहुत  कुछ  खोया  है  l  भौतिक  प्रगति  तो  हो  गई   लेकिन  चेतना  के  स्तर  पर   आज  मनुष्य  कहाँ  पर  है   इसे  संसार  में  होने  वाले  युद्ध , हत्याकांड , आत्महत्या , और  धन  कमाने  की  अंधी  दौड़  को  देखकर  समझा  जा  सकता  है  l  यदि  मनुष्य  की  चेतना  विकसित  हो  , उसमें  अहंकार  न  हो  तो  वह  जीवन  में   घटने  वाली  अनेक  घटनाओं  के  पीछे  की  वजह  समझ  जाता  है   और  उनसे  लाभान्वित  होता  है  l ---------- महाभारत  में  जब  चौसर  के  खेल  में  पराजित  होने  पर  पांडवों  को  वनवास  हुआ  l  उस  समय  दिव्य  अस्त्रों   को  प्राप्त  करने  के  लिए  अर्जुन  ने  महादेव  को  प्रसन्न  करने  के  लिए  तप  किया  l  ईश्वर  से  कुछ  प्राप्त  करना  हो  तो  बड़ी  परीक्षाएं  देनी  पड़ती  हैं  l  अर्जुन  जिस  वन  में  तप  कर  रहा  था  वहीँ  महादेव  जी  व्याध  के  रूप  में  शिकार  करने   उसी  वन  में  पहुंचे  l  वे   एक  जंगली  सुअर  का  पीछा  कर  रहे  थे  l  सामने  अर्जुन  को  देख   सुअर  उस  पर  झपटा  l  अर्जुन  चौंक  गया  और  तुरंत  अपने  गांडीव  से  बाण  चला  दिया  l  उसी  समप  व्याध  रूप  धारी  महादेव  ने  भी  सूअर  पर  तीर  चला  दिया  l  दोनों  के  तीर  एक  साथ  लगे  l  अपने  शिकार  पर  एक  शिकारी  को  हमला  करते  देख  अर्जुन  को  क्रोध  आया   उसने  शिकारी  से  कहा --- ' तुमने  मेरे  शिकार  पर  अपना  तीर  चलाने  की  हिम्मत  कैसे  की  ?  '   दोनों  में  बहुत  विवाद  हुआ  कि  किसका  तीर  पहले  लगा  ?   विवाद  इतना  बड़ा  कि  यह  निश्चय  हुआ  कि  आपस  में  लड़कर  निश्चय  हो  कि  किसके  तीर  से  शिकार   मरा  है  l  अर्जुन  ने  व्याध  पर   बाणों   की  वर्षा  की  l  जितने  भी  उसके  पास  बाण  थे  , सब  चला  दिए  लेकिन  व्याध  पर  कोई  असर  नहीं , वह  हँसता  रहा  और  उसने  हँसते  हुए  अर्जुन  के  हाथ  से  उसका  धनुष  छीन  लिया  l  अर्जुन  ने  तलवार  से  मारा  तो  तलवार  टूट  गई ,  अब  अर्जुन  ने  घूंसे  मारना  शुरू  किया   लेकिन  व्याध  पर  कोई  असर  नहीं  , वह  मुस्कराता  रहा  l  अर्जुन  का  दर्प  चूर -चूर  हो  गया , अपना  घमंड  छोड़कर  उसने  देवाधिदेव  महादेव  का  ध्यान  किया  , ईश्वर  की  शरण  ली  तो  उसके  मन  में  ज्ञान  का  प्रकाश  फ़ैल  गया  , वह  समझ  गया  कि  ये  व्याध  नहीं  साक्षात्  महादेव  हैं  , अर्जुन  उनके  चरणों  में  गिर  गया  , उनसे  क्षमा  मांगी  l  महादेव  ने  प्रसन्न  होकर  अर्जुन  को  पाशुपत  अस्त्र  और  अनेक  दिव्य  अस्त्र  तथा  अनेक  वरदान  दिए  l     यहाँ  अर्जुन  ने  अपने  अहंकार  को  छोड़ा  और  ईश्वर  के  प्रति  शरणागत  हुआ  तब  उसे  ईश्वर  की  कृपा  मिली  l  -------------  एक  दूसरी  कथा  है  ------ उत्तंक  मुनि  मरुभूमि  के  आसपास  घूमने  वाले  तपस्वी  थे  l  जब जब  भगवान  श्रीकृष्ण  पांडवों  से  विदा  लेकर  द्वारका  लौट  रहे  थे  तब  मार्ग  में  उनकी  भेंट  उत्तंक  मुनि  से  हुई  l  उनसे  प्रसन्न  होकर  भगवान  श्रीकृष्ण  ने  उनसे  कहा  --- 'मुनिवर !  मैं  आपको  कुछ  वरदान  देना  चाहता  हूँ  , जो  चाहें  मांग  लो  l ' उत्तंक  मुनि  ने  कहा --- "  भगवन  आपके  दर्शन  हो  गए  , अब  किसी  वरदान  की  चाह  नहीं  है  l ' भगवान  ने  उनसे  आग्रह  किया  कि कोई  वरदान   मांग  लो  ! '  उत्तंक  मुनि  मरुभूमि  में  घूमते थे  इसलिए  उन्होंने  कहा  ---" प्रभो  !  आप  इतना  वरदान  दें  कि  मुझे  जब  भी  और  जहाँ  कहीं  भी  जल  की  आवश्यकता  हो  , मुझे  वहीँ  जल  मिल  जाए  l '  भगवान  वरदान  देकर  द्वारका  चले  गए  l   बहुत  दिन  बाद  उत्तंक  मुनि  वन  में  फिर  रहे  थे  ,  उन्हें  बड़ी  प्यास  लगी  , उन्होंने   श्रीकृष्ण  का  ध्यान  किया  ,  तुरंत  ही   उन्हें  सामने  एक  चाण्डाल  खड़ा  दिखाई  दिया  ,  उसने  फटे -पुराने  चीथड़े  पहन  रखे  थे  , साथ  में  चार -पांच  जंगली  कुत्ते  थे  और  कंधे  पर  मशक  में  पानी  था  l  चांडाल  बोला  --- "  मालूम  होता  है  आप  प्यास  से  परेशान   हैं  l  यह  लीजिए   पानी  l '   चांडाल  की  गन्दी  सूरत , उसकी  चमड़े  की  मशक   और  कुत्तों  को  देखकर  उन्होंने  नाक -भौं  सिकोड़  ली   और  उसका  पानी  लेने  से  इनकार  कर  दिया    उत्तंक  मुनि  को  बहुत  क्रोध  आया  कि  श्रीकृष्ण  ने  मुझे  झूठा  वरदान  कैसे  दिया ,  मैं  ब्राह्मण  , उस  चांडाल  के  हाथ  का  , मशक  का  गन्दा  पानी  कैसे  पी  सकता  हूँ  ? '  उसी  समय  चांडाल  अचानक  कुत्तों  समेत   आँखों  से  ओझल  हो  गया  l  अब  उत्तंक  मुनि  समझे  कि  यह  तो  उनकी  परीक्षा  थी  ,  उनसे  भारी  भूल  हो  गई  ,  मेरे  ज्ञान  ने  समय  पर  मेरा  साथ  नहीं  दिया  l  थोड़ी  देर  में  भगवान  श्रीकृष्ण   शंख , चक्र  लिए  उनके  सामने  प्रकट  हुए  l  श्रीकृष्ण  ने  कहा --- " मुनिवर  !  आपने  पानी  की  इच्छा  की  थी  तो  मैंने  देवराज  से  आग्रह  किया  कि  मुनि  को  अमृत  ले  जाकर  पिलाओ  l  तब  देवराज  ने  कहा  कि  मैं  चांडाल  के  रूप  में  जाऊँगा  , यदि  मुनि  ने  इनकार  कर  दिया   तो  नहीं  पिलाऊंगा  l  ' कृष्णजी  ने  कहा   मैंने  सोचा  था  कि  आप  ज्ञानी   और  महात्मा  हैं , आपके  लिए  तो  चांडाल  और  ब्राह्मण  समान  होंगे   और  चांडाल  के  हाथ  का  पानी  पीने  में  आप  संकोच  नहीं  करेंगे   लेकिन  स्वयं  को  श्रेष्ठ  समझने  के  कारण  आप  अमृत  से  वंचित  रह  गए  l  "  उत्तंक  मुनि  अपनी  गलती  पर  बहुत  लज्जित  हुए   लेकिन  अब   क्या  हो  सकता  है  ?  देवराज    अमृत  लेकर  वापस  जा  चुके  थे  l  

2 August 2025

WISDOM ------

 वृक्ष  ने  पथिक  से  कहा --- " तुम  जितनी  बार  पत्थर  मारोगे  , उतनी  ही  बार  मैं  उपहार  में  फल  दूंगा  l  यह  तो  मेरा  व्रत  है l  पत्थर  का  उत्तर  पत्थर  से  देना  मुझे  नहीं  आता  , भले  ही  मुझे  कितना  ही  कष्ट  क्यों  न  हो  l "  पथिक  ने  कुढ़कर  कहा --- "  तुम  यों  फलो -फूलो   और  मैं  भूखा  फिरु, क्या यह  तुम्हारा  और  तुम्हारे  भगवान  का  अन्याय  नहीं  l "    वृक्ष  ने  हँसकर  कहा --- "  ईर्ष्या  क्यों  करते  हो  पथिक  !  मेरे  पतझड़  के  कष्टों  को  देखते  तो   पता  चलता  कि  यह  फल  मैंने  कितनी  तपस्या  कर  प्राप्त  किए  हैं  ?  तू  भी  वैसा  ही  पुरुषार्थ  कर  देखो  l  "                                                                                                                                                                 सत्य  है  किसी  को  सफल  होते  देख  उससे  ईर्ष्या  करने  वालों  की  कमी  नहीं  है  l   लोग  सफल  व्यक्ति  को  देखकर  जलते  भी  हैं  और  उसे  नीचे  गिराने   का  हर  संभव  प्रयत्न  भी  करते  हैं  l  सफलता  प्राप्त  करने  के  लिए   उसने   जो  त्याग  और  तपस्या  की , कठिन  संघर्ष  किया   , उससे  प्रेरणा  लेकर  वे   स्वयं  सफल  होने  के  लिए  कोई  प्रयत्न  नहीं  करते  l  अब  लोग  शार्ट कट  से  सफल  होना  चाहते  हैं   लेकिन  गलत  तरीके  से  प्राप्त  सफलता  में  कोई   सुकून  व  आनंद  नहीं  होता  , हमेशा  गिरने  का  भय  सताता  रहता  है  l