महाकवि निराला ने काव्य - साधना के माध्यम से लोक मानस का मार्गदर्शन करने का निश्चय किया | उनके ग्रन्थ ' राम की शक्ति - पूजा ' में आत्म बल की , नैतिक बल की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है | ' आसुरी तत्वों के साथ दैवीय पद्धति से मोर्चा लेने की प्रेरणा उनके काव्य दर्शन से मिलती है |श्री राम लंका विजय अभियान को आरम्भ करने से पूर्व शक्ति की आराधना करते हैं उनका अभीष्ट नैतिक बल था |
16 February 2017
15 February 2017
शिवाजी का स्वाभिमान और द्रढ़ता
शिवाजी के व्यक्तित्व की इतनी चर्चा सुन बीजापुर के नवाब ने उनके पिता शाहजी को आदेश दिया कि वे अपने पुत्र शिवा के साथ दरबार में उपस्थित हों । शिवाजी ने इसे अपनी आत्मा का अपमान समझा और दरबार में जाने से मना कर दिया । तब दूसरे दिन मुरार पन्त शाहजी के घर गए और शिवाजी से कहने लगे ----- " बेटे ! तुम्हे दरबार में चलना ही चाहिए । बादशाह खुश हो जायेगा तो तुम्हे ख़िताब और ओहदा देगा , जागीर देगा । अपने बड़े लाभ के लिए बादशाह को एक बार सलाम कर लेने में क्या हर्ज है । फिर सुख से जीवनयापन करना । "
मुरार पन्त की बात सुनकर किशोर शिव बड़ी देर तक उनका मुंह देखते रहे और सोचते रहे कि ऐसे स्वार्थी लोगों के कारण ही देश और धर्म की यह दशा है । शिवाजी ने कहा --- " बादशाह से चाटुकारिता में पाए जिस पद और जागीर को लाभ बताते हैं उसे मैं भिक्षा से भी अधिक गया - गुजरा समझता हूँ । अपने बाहुबल और सत्कर्मों द्वारा उत्पादित सम्पति को ही मैं वांछनीय मानता हूँ । ये यवन बादशाह हिन्दुओं को इसी प्रकार लालच में डालकर उनकी स्वान वृति जगाते हैं और भाई से भाई का गला कटवाते हैं । यह तो मनुष्य की अपनी कमजोरी और सोचने का ढंग है कि अन्यायियों और अत्याचारियों के तलवे चाटने से ही काम चलता है वैसे इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि संसार में एक से एक बढ़कर स्वाभिमानी तथा सिद्धान्त के धनी व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने सिर दे दिया , जीवन दे दिया पर स्वाभिमान नहीं दिया l "
मुरार पन्त की बात सुनकर किशोर शिव बड़ी देर तक उनका मुंह देखते रहे और सोचते रहे कि ऐसे स्वार्थी लोगों के कारण ही देश और धर्म की यह दशा है । शिवाजी ने कहा --- " बादशाह से चाटुकारिता में पाए जिस पद और जागीर को लाभ बताते हैं उसे मैं भिक्षा से भी अधिक गया - गुजरा समझता हूँ । अपने बाहुबल और सत्कर्मों द्वारा उत्पादित सम्पति को ही मैं वांछनीय मानता हूँ । ये यवन बादशाह हिन्दुओं को इसी प्रकार लालच में डालकर उनकी स्वान वृति जगाते हैं और भाई से भाई का गला कटवाते हैं । यह तो मनुष्य की अपनी कमजोरी और सोचने का ढंग है कि अन्यायियों और अत्याचारियों के तलवे चाटने से ही काम चलता है वैसे इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि संसार में एक से एक बढ़कर स्वाभिमानी तथा सिद्धान्त के धनी व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने सिर दे दिया , जीवन दे दिया पर स्वाभिमान नहीं दिया l "
14 February 2017
सेवा व्रत का आदर्श ------- अवन्तिकाबाई गोखले
' अवन्तिकाबाई ने अपने व्यवहारिक आचरण से यह सिद्ध कर दिया कि यदि हम ईमानदारी और सच्चाई से काम लें तो हमारे विरोधियों को भी हमारी प्रशंसा करनी पड़ेगी ।
1923 में अवन्तिका बाई बम्बई कारपोरेशन की सदस्या नियुक्त की गईं और आठ वर्ष तक वे वहां रहकर जनता के हित में विभिन्न कार्य करती रहीं । उन्होंने बम्बई नगर में कई जच्चाखाने खुलवाये और ऐसी व्यवस्था की कि उनमे गरीब वर्ग की महिलाएं विशेष रूप से लाभ उठा सकें ।
उन्होंने वहां यह प्रस्ताव रखा कि कारपोरेशन के सभी कर्मचारी स्वदेशी वस्त्र व्यवहार करें जब यह प्रस्ताव कुछ संशोधनों से पारित हो गया तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई , क्योंकि इस प्रकार कारपोरेशन ने स्वदेशी के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया । ।
अपनी सदस्यता के आठ वर्षों में उन्होंने जितने भी प्रस्ताव पेश किये वे सब जन सेवा की भावना से होते थे । उन्होंने कभी भी अपना कोई स्वार्थ पूरा नहीं किया । किसी अवसर पर म्युनिसिपल कमिश्नर मि. क्लेटन ने कहा था ----- " अवन्तिका बाई के कारण यहाँ का वातावरण गंभीर रहता है और समस्त चर्चा ऊँचे दर्जे की होती है । उनकी ईमानदारी और स्पष्टता लाजवाब है l "
1923 में अवन्तिका बाई बम्बई कारपोरेशन की सदस्या नियुक्त की गईं और आठ वर्ष तक वे वहां रहकर जनता के हित में विभिन्न कार्य करती रहीं । उन्होंने बम्बई नगर में कई जच्चाखाने खुलवाये और ऐसी व्यवस्था की कि उनमे गरीब वर्ग की महिलाएं विशेष रूप से लाभ उठा सकें ।
उन्होंने वहां यह प्रस्ताव रखा कि कारपोरेशन के सभी कर्मचारी स्वदेशी वस्त्र व्यवहार करें जब यह प्रस्ताव कुछ संशोधनों से पारित हो गया तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई , क्योंकि इस प्रकार कारपोरेशन ने स्वदेशी के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया । ।
अपनी सदस्यता के आठ वर्षों में उन्होंने जितने भी प्रस्ताव पेश किये वे सब जन सेवा की भावना से होते थे । उन्होंने कभी भी अपना कोई स्वार्थ पूरा नहीं किया । किसी अवसर पर म्युनिसिपल कमिश्नर मि. क्लेटन ने कहा था ----- " अवन्तिका बाई के कारण यहाँ का वातावरण गंभीर रहता है और समस्त चर्चा ऊँचे दर्जे की होती है । उनकी ईमानदारी और स्पष्टता लाजवाब है l "
13 February 2017
WISDOM
' मनस्वी और कर्मठ व्यक्ति किसी भी दशा में क्यों न रहें वह समाज सेवा का कोई - न -कोई उपयोगी कार्य कर ही सकता है | '
लेनिन को तीन वर्ष के लिए साइबेरिया में निर्वासन का दंड दिया गया । साइबेरिया उस ज़माने में रूस का काला पानी समझा जाता था । वहां की निर्वाह सम्बन्धी कठिनाइयों , एकांत और जेल में दिए जाने वाले कष्टों के कारण अनेक व्यक्ति आत्म हत्या कर लेते थे , कोई पागल हो जाते थे , कोई भूख से मर जाते थे लेकिन लेनिन के दिमाग में इतने विचार भरे हुए थे कि वह अपना तमाम वक्त इसी में खर्च कर देता था । । लेनिन ने वहां रहते हुए दो उपयोगी पुस्तके लिखीं जो आगे चलकर श्रमजीवी आन्दोलन के कार्य कर्ताओं के लिए बड़ी प्रेरणादायक सिद्ध हुईं ।
लेनिन को तीन वर्ष के लिए साइबेरिया में निर्वासन का दंड दिया गया । साइबेरिया उस ज़माने में रूस का काला पानी समझा जाता था । वहां की निर्वाह सम्बन्धी कठिनाइयों , एकांत और जेल में दिए जाने वाले कष्टों के कारण अनेक व्यक्ति आत्म हत्या कर लेते थे , कोई पागल हो जाते थे , कोई भूख से मर जाते थे लेकिन लेनिन के दिमाग में इतने विचार भरे हुए थे कि वह अपना तमाम वक्त इसी में खर्च कर देता था । । लेनिन ने वहां रहते हुए दो उपयोगी पुस्तके लिखीं जो आगे चलकर श्रमजीवी आन्दोलन के कार्य कर्ताओं के लिए बड़ी प्रेरणादायक सिद्ध हुईं ।
12 February 2017
होम्योपैथी के जन्मदाता -------- डॉ. हैनीमैन
डॉ. हैनीमैन का जीवन समाज को कर्मयोग का शिक्षण देता है । हैनीमैन ऐलोपैथी के डॉक्टर बन कर जर्मनी आये और वहां एक सरकारी अस्पताल में सिविल सर्जन हो गए । उनके दो पुत्र थे , दोनों एक - दो दिन के अन्तर से बीमार पड़े । हैनीमैन स्वयं बड़े डॉक्टर थे इसलिए बच्चों की चिकित्सा उन्होंने स्वयं की अच्छी से अच्छी औषधि दी गई , लेकिन ईश्वरीय सत्ता के आगे मनुष्य का वश नहीं चलता । दोनों पुत्र एक साथ एक ही सांझ मृत्यु के मुख में चले गए । उन्होंने ईश्वरीय इच्छा को प्रणाम किया लेकिन अब उन्हें भौतिक ज्ञान से अविश्वास हो गया ।
दुःख में मनुष्य की ईश्वरीय आस्थाएं तीव्र हो जाती हैं , वे सोचने लगे -- सुख - दुःख क्या है ? उसका मनुष्य से क्या सम्बन्ध है ? ऐसे तथ्यों को सुलझाने के लिए विशेष शोध की , ज्ञान की आवश्यकता थी । अत: उन्होंने सम्मानित डॉक्टर का पद त्याग दिया और ज्ञान का लाभ उठाने के लिए एक सरकारी लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन हो गए । अभी तक वे फ्रेंच , अंग्रेजी और जर्मन जानते थे दिन - रात एक करके हैनीमैन ने दुनिया की 9 भाषाएँ और सीखीं और यह सिद्ध कर दिया कि मनुष्य के परिश्रम के आगे संसार की कोई भी वस्तु असंभव नहीं है l
अपनी इस साधना में उन्होंने यह अनुभव किया कि संसार के सब शरीरों में एक ही तरह की चेतना काम करती है , वह मन की शक्ति से भिन्न है । उन्होंने यह अवश्य जान लिया कि मन एक ऐसी शक्ति है जो आत्मा का उपयोग करती है । पागल का मन काम नहीं करता पर आत्मा काम करती है l आत्मा शब्द विद्दुत जैसी कोई शक्ति है जिसमे छल , कपट , भेदभाव आदि विकार नहीं होते क्योंकि पागल मनुष्य में हो चूका है गुण या विकृति नहीं है , मन के दोष से रोग उत्पन्न होता है , मन के विकार से ही शरीर में विकार उत्पन्न होते हैं । अपनी इस धारणा की पुष्टि के लिए उन्होंने भारतीय आयुर्वेद पढना प्रारम्भ किया ।
आज होम्योपैथी का विस्तार सारे संसार में हो गया है । उन्होंने कहा कि दवा देने से पूर्व मनुष्य को अपने आचरण और मनोभावों को सुधर की शिक्षा दी जानी चाहिए
दुःख में मनुष्य की ईश्वरीय आस्थाएं तीव्र हो जाती हैं , वे सोचने लगे -- सुख - दुःख क्या है ? उसका मनुष्य से क्या सम्बन्ध है ? ऐसे तथ्यों को सुलझाने के लिए विशेष शोध की , ज्ञान की आवश्यकता थी । अत: उन्होंने सम्मानित डॉक्टर का पद त्याग दिया और ज्ञान का लाभ उठाने के लिए एक सरकारी लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन हो गए । अभी तक वे फ्रेंच , अंग्रेजी और जर्मन जानते थे दिन - रात एक करके हैनीमैन ने दुनिया की 9 भाषाएँ और सीखीं और यह सिद्ध कर दिया कि मनुष्य के परिश्रम के आगे संसार की कोई भी वस्तु असंभव नहीं है l
अपनी इस साधना में उन्होंने यह अनुभव किया कि संसार के सब शरीरों में एक ही तरह की चेतना काम करती है , वह मन की शक्ति से भिन्न है । उन्होंने यह अवश्य जान लिया कि मन एक ऐसी शक्ति है जो आत्मा का उपयोग करती है । पागल का मन काम नहीं करता पर आत्मा काम करती है l आत्मा शब्द विद्दुत जैसी कोई शक्ति है जिसमे छल , कपट , भेदभाव आदि विकार नहीं होते क्योंकि पागल मनुष्य में हो चूका है गुण या विकृति नहीं है , मन के दोष से रोग उत्पन्न होता है , मन के विकार से ही शरीर में विकार उत्पन्न होते हैं । अपनी इस धारणा की पुष्टि के लिए उन्होंने भारतीय आयुर्वेद पढना प्रारम्भ किया ।
आज होम्योपैथी का विस्तार सारे संसार में हो गया है । उन्होंने कहा कि दवा देने से पूर्व मनुष्य को अपने आचरण और मनोभावों को सुधर की शिक्षा दी जानी चाहिए
11 February 2017
WISDOM
' जनकल्याण के लिए परशुरामजी ज्ञान और विग्रह दोनों को ही आवश्यक मानते थे | ' उनका मत था कि शान्ति की स्थापना के लिए प्रयुक्त हुई अशान्ति सराहनीय है और अहिंसा की परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए की गई हिंसा में पाप नहीं माना जाता ।
स्वार्थ की पूर्ति और अन्याय के लिए आक्रमण करना निन्दनीय है , वर्जित है । लेकिन आत्म रक्षा के लिए , अनाचार की रोकथाम के लिए प्रतिरोधात्मक उपाय के समय हिंसा अपनानी पड़े तो इसे न तो अनुचित माना जाता है और न हेय ।
जन सहयोग से उन्होंने अत्याचारियों के विनाश में आशाजनक सफलता पाई । उनका कहना था कि व्यक्तियों के पास कितनी बड़ी शक्ति क्यों न हो , जनता की संगठित सामर्थ्य से वह कम ही रहती है l
स्वार्थ की पूर्ति और अन्याय के लिए आक्रमण करना निन्दनीय है , वर्जित है । लेकिन आत्म रक्षा के लिए , अनाचार की रोकथाम के लिए प्रतिरोधात्मक उपाय के समय हिंसा अपनानी पड़े तो इसे न तो अनुचित माना जाता है और न हेय ।
जन सहयोग से उन्होंने अत्याचारियों के विनाश में आशाजनक सफलता पाई । उनका कहना था कि व्यक्तियों के पास कितनी बड़ी शक्ति क्यों न हो , जनता की संगठित सामर्थ्य से वह कम ही रहती है l
10 February 2017
आधुनिक ऋषि ------ डॉ. राधाकृष्णन
' व्यवहार क्षेत्र में वाक् कौशल का ही प्रभाव नहीं होता वरन प्रभाव तो उत्पन्न करती है व्यक्ति के ह्रदय में अपने उद्देश्यों के लिए कसक । ' डॉ. राधाकृष्णन का एकमात्र उद्देश्य था संतप्त मानवता को शान्ति की शीतलता प्रदान करना । इस उद्देश्य के लिए उनके ह्रदय में निरंतर एक टीस सी उठा करती थी । डॉ. राधाकृष्णन रूस में राजदूत रहे , जब वे रूस से विदा होने लगे तो लौह ह्रदय स्टालिन की भी आँखें नम हो उठीं । डॉ. राधाकृष्णन ने स्टालिन के गालों पर हाथ फेरा और उसकी पीठ को थप थपाया । । स्टालिन ने कहा ---- " आप पहले व्यक्ति हैं जिसने मुझे मनुष्य समझ कर व्यवहार किया । आप जा रहें हैं इसका मुझे भारी दुःख है । "
1967 में डॉ. राधाकृष्णन ने पुन: राष्ट्रपति पद के लिए खड़े होने से इनकार कर दिया । वे भारतीय राजनीति और व्यवस्था से क्षुब्ध हो उठे थे । उन्होंने आशा व्यक्त की थी-----"" वर्तमान संकट का सामना करने के लिए पूर्ण तथा अंतिम परिवर्तन अनिवार्य है ।
1967 में डॉ. राधाकृष्णन ने पुन: राष्ट्रपति पद के लिए खड़े होने से इनकार कर दिया । वे भारतीय राजनीति और व्यवस्था से क्षुब्ध हो उठे थे । उन्होंने आशा व्यक्त की थी-----"" वर्तमान संकट का सामना करने के लिए पूर्ण तथा अंतिम परिवर्तन अनिवार्य है ।
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