पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " प्रत्येक मनुष्य , यहाँ तक कि प्रत्येक जीवधारी अपनी प्रकृति के अनुसार आचरण करता है l जैसे सर्प की प्रकृति क्रोध है l इस क्रोध के कारण ही वह फुफकारते हुए डसता है और अपने अन्दर का जहर उड़ेल देता है l कोई उसे कितना ही दूध पिलाए , उसकी प्रकृति को परिवर्तित नहीं किया जा सकता l इसी तरह नागफनी और बबूल को काँटों से विहीन नहीं किया जा सकता है l जो भी इनसे उलझेगा उसे ये काँटे चुभेंगे ही l " इसी तरह यदि कोई व्यक्ति अहंकारी , षड्यंत्रकारी , छल , कपट , धोखा करने वाला , अपनों से ही विश्वासघात करने वाला , अपनों की ही पीठ में छुरा भोंकने वाला है तो उसे आप सुधार नहीं सकते l उसका परिवार , समाज यहाँ तक कि स्वयं ईश्वर भी उसे समझाने आएं , तब भी वह सुधर नहीं सकता l उसकी गलतियों के लिए ईश्वर उसे दंड भी देते हैं जैसे कोई नुकसान हुआ , कोई बीमारी हो गई लेकिन वह जैसे ही कुछ ठीक हुआ फिर से पापकर्म में उलझ जाता है l इसलिए ऐसे लोगों से कभी उलझना नहीं चाहिए l वे जो कर रहे हैं , उन्हें करने दो l उनका जन्म ही ऐसे कार्यों के लिए हुआ है l बुद्धिमानी इसी में है कि ऐसे लोगों से दूर रहे l समस्या सबसे बड़ी यह है कि आप उनसे दूरी बना लें लेकिन ऐसे जिद्दी और अहंकारी लोग आपका पीछा नहीं छोड़ते क्योंकि उनके पास दूसरों को सताने के अतिरिक्त और कोई विकल्प ही नहीं है l वे पत्थर फेंकते ही रहेंगे l जो विवेकवान हैं वे उन पत्थरों से सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ जाएंगे , अपनी जीवन यात्रा में निरंतर सकारात्मक ढंग से आगे बढ़ते जाएंगे l आचार्य श्री कहते हैं ---- " जो विवेकवान हैं , जिनका द्रष्टिकोण परिष्कृत है वे प्रत्येक घटनाक्रम का जीवन के लिए सार्थक उपयोग कर लेते हैं l उदाहरण के लिए अमृत की मधुरता तो उपयोगी है ही , परन्तु यदि विष को औषधि में परिवर्तित कर लिया जाए तो वह भी अमृत की भांति जीवनदाता हो जाता है l "