राजा बालीक ने अपने प्रधान सचिव विश्वदर्शन को पदच्युत कर राज्य से निकाल दिया l विश्वदर्शन एक गाँव में रहते थे , पदच्युत होने के बाद वे वहीँ आकर बड़े परिश्रम का जीवन बिताने लगे l एक दिन राजा बालीक को यह देखने की इच्छा हुई कि विश्वदर्शन की स्थिति कैसी है ? वे वेश बदलकर उसी गाँव की ओर चल पड़े l गाँव पहुंचकर उन्होंने देखा कि विश्वदर्शन के मकान के सामने पच्चीसों व्यक्ति बैठे बातचीत कर रहे हैं और प्रसन्न हैं l विश्वदर्शन स्वयं बड़े प्रसन्नचित्त दिखाई दे रहे हैं l छद्म वेश धारी बालीक ने विश्वदर्शन से पूछा --- " महानुभाव ! आपको तो राजा ने पदच्युत कर दिया है , फिर भी आप इतने प्रसन्न हैं , इसका रहस्य क्या है ? " विश्वदर्शन ने राजा को पहचान लिया और बोले ---- " रहस्य है ' मनुष्यता ' , महाराज ! पहले तो लोग मुझसे डरते थे , पर अब वह डर नहीं है , इसलिए लोगों से खुलकर बात करने और सेवा , सहानुभूति व्यक्त करने में बड़ा आनंद आता है l " महाराज बालीक ने अनुभव किया , सच है कि पद से लोग डर सकते हैं , सम्मान तो मनुष्यता के श्रेष्ठ गुणों का होता है l लौटते समय वे विश्वदर्शन को पुन: साथ लेते आए और उन्हें उनका पद लौटा दिया l
31 August 2024
30 August 2024
WISDOM -----
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " अहंकारी व्यक्ति दुर्गुणों की दुर्गन्ध तो अपने व्यक्तित्व में सम्मिलित करता ही है , साथ ही जीवन विकास से भी हाथ धो बैठता है l इसलिए जीवन में यदि आगे बढ़ना है , विकास करना है , व्यक्तित्व को सँवारना है तो सबसे पहले विनम्रता और शालीनता को अपनाना होगा l विनम्रता से ही व्यक्ति का विवेक बढ़ता है , समझदारी बढती है और वह औचित्य पूर्ण कार्य कर पाता है l विनम्रता का तात्पर्य केवल बाहरी रूप से सरल , सहनशील और शालीन बनना नहीं है , बल्कि आंतरिक द्रष्टि से भी संवेदनशील होना है l " ------- कल्याण मासिक पत्रिका के संपादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी भीषण ठण्ड के दिनों में आधी रात के समय गीता -वाटिका , गोरखपुर से निकलते और ठण्ड से सिकुड़ रहे गरीबों को कंबल चादर ओढ़ा दिया करते थे l एक बार एक पत्रकार ने गरीबों को कंबल ओढ़ाते हुए उनका फोटो ले लिया , तो पोद्दार जी ने बड़ी विनम्रता से कहा ---- " यह फोटो अख़बार में मत छापना , न ही इस बारे में किसी दूसरे को बताना , नहीं तो मैं पुण्य की जगह पाप का भागी बनूँगा l प्रचार के उदेश्य से की गई सेवा पुण्य नहीं , पाप का मार्ग बताई गई है l
29 August 2024
WISDOM ------
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----" आकांक्षाएं अपने आप में बुरी नहीं हैं यदि उनका नियोजन सदुद्देश्य में किया जाए l इनसे जीवन में क्रियाशीलता बनी रहती है l महान बनने का प्रयत्न एक साधना है , इसमें व्यक्ति को गुणवान बनने के लिए लगातार पुरुषार्थ करना पड़ता है किन्तु महत्वकांक्षी व्यक्ति की रूचि इन कष्ट साध्य प्रयत्नों में नहीं होती l महानता के महत्त्व को वह जैसे -तैसे पाना चाहता है , ताकि लोग उसे भी प्रणाम करें , गरिमापूर्ण समझें l आचार्य श्री आगे लिखते हैं ---" इतिहास ऐसे लोगों के क्रियाकलापों से भरा है जिन्होंने महत्त्व को अपनी झोली में डालने के लिए जो कुछ किया , उससे मानवता का सिर शर्म से झुक जाता है l सिकंदर , हिटलर आदि राजाओं को विश्व विजयी होने का सम्मान पाने के लिए लाखों -करोड़ों लोगों को मारने -काटने में तनिक भी तकलीफ नहीं हुई l इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ पिता को मारकर सिंहासन हासिल किया l इसी तरह धार्मिक महत्वाकांक्षा किसी भी व्यक्ति को धूर्त और पाखंडी बना देने के लिए काफी है l इस क्षेत्र के लिए तपोमय जीवन की अनिवार्यता है , उसके लिए तो हिम्मत नहीं पड़ती l धार्मिक होने का महत्त्व पाने की महत्वाकांक्षा ने लाखों गुरु , भगवान पैदा कर दिए l सामाजिक क्षेत्र में भी महत्त्व लूटने की चाह में नकली समाजसेवी पनपते हैं l आचार्य श्री लिखते हैं ----' महत्त्व को पाने की ललक एक ऐसा विष है , जो जिस क्षेत्र में घुलेगा उसे विषैला बनाएगा l इसकी तोह में लगा आदमी अन्दर से नीति , मर्यादाओं और अनुशासन की अवहेलना करते हुए बाहर से नैतिक , मर्यादित और अनुशासन प्रिय दिखाने का प्रयत्न करता है l इस तरह नैतिकता या अच्छाई का खोल ओढ़े लोगों से समाज और राष्ट्र को सबसे अधिक खतरा है l पाप को पाप समझ लेने के बाद उससे बचा जा सकता है लेकिन जो पाप पुण्य की आड़ में किया जाता है , उससे बच पाना बहुत कठिन है l शत्रु से बचाव आसान है , पर मित्र बने शत्रु से बच पाना असंभव है l डाकू को पहचानना और उससे बचना सामान्य क्रम है , किन्तु साधु के वेश में घूमने वाले डाकू से बच पाना आसान नहीं है l डाकू संसार की जितनी हानि नहीं करते तथाकथित सफेदपोश उससे कहीं अधिक परेशानी खड़ी करते हैं l ऐसे लोग अपनी स्थिति से कभी संतुष्ट नहीं होते हैं , क्योंकि उन्हें हमेशा यही भय बना रहता है कि कहीं भेद न खुल जाए l "
28 August 2024
WISDOM ------
महाराज विक्रांत एक बार जंगल में भटक रहे थे l एक किसान ने उन्हें शरण दी , वह नहीं जानता था कि ये कौन हैं ? किसान ने उनका बहुत स्वागत किया l जाते समय राजा ने राजमुद्रा अंकित पहचान पात्र दिया और कहा ---- " कभी कोई कष्ट हो , आवश्यकता हो तो राजदरबार में इसे लेकर आना l " किसान मेहनती था l उसे कुछ आवश्यकता तो थी नहीं , समय के साथ वह घटनाक्रम भूल गया l बहुत समय बाद परिस्थिति में परिवर्तन हुआ , किसान की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी l उसे पिछली घटना याद आई l वह पहचान पत्र लेकर दरबार पूछा l राजा उस समय आराधना -गृह में था l पहचान पत्र के कारण प्रहरियों ने उसे अन्दर जाने दिया l किसान ने देखा कि महाराज स्वयं भगवान से कुछ मांग रहे थे l यह देखकर किसान का स्वाभिमान जाग गया और वह वापस लौटने लगा l महाराज ने उसे देखा तो पहचान लिया और रोक कर उसे कुछ देने की इच्छा प्रकट की l किसान ने कहा ---- " महाराज ! आया तो मांगने था , पर उस परम सत्ता से ही मांगूंगा , जिससे आप भी मांगते हैं l सर्वशक्तिमान भगवान के रहते मनुष्य से क्यों माँगा जाये l
26 August 2024
WISDOM ----
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " इन्द्रिय संयम में वाणी का संयम प्रमुख है l अनावश्यक बोलने में जितनी गलतफहमियां और समस्याएं पैदा होती हैं , उतनी मौन से नहीं होतीं l निरर्थक बोलना बहुत थकाने वाली प्रक्रिया है l सभी को अपने जीवन में मौन का अभ्यास करना चाहिए l इससे बहुत सारे फायदे होंगे l सर्वप्रथम वाद -विवाद थमेंगे l अनावश्यक बातें नहीं बिगड़ेंगी , कलह , क्लेश नहीं होंगे l मौन रहने से शांति का साम्राज्य फैलेगा l " मौन रहने के साथ यह भी जरुरी है कि मौन की अवधि में मन शांत रहे , मन में सकारात्मक विचार रहें और शरीर सकारात्मक कार्यों में लगा रहे , आलसी बनकर न बैठें l यदि मौन के समय मन में नकारात्मक विचार रहेंगे , व्यक्ति मौन रहकर छल -कपट , धोखा देने , षड्यंत्र करने की योजना बनता रहेगा तो यह उस व्यक्ति और उसके स्वयं के लिए बहुत घातक होंगे l शक्ति का सदुपयोग बहुत जरुरी है , फिर चाहे वह मौन की हो , अपने धन , पद की हो और अपनी किसी विशेष योग्यता की हो l शक्ति का सदुपयोग न होने से ही आज संसार में तबाही है l शक्ति का सदुपयोग मनुष्य को देवत्व की श्रेणी में ले आता है लेकिन शक्ति का दुरूपयोग मनुष्य के भीतर के असुर को जगाकर उसे नर पिशाच बना देता है l शक्ति का सदुपयोग हो , इसके लिए सद्बुद्धि और विवेक की जरुरत है l सामान्य जन में सद्बुद्धि आ भी जाए तो उससे समाज और संसार में कोई परिवर्तन नहीं आ पाता l जिनके पास धन , पद , प्रतिष्ठा , वैभव , अति संपदा , संगीत , कला , खेल . चिकित्सा , निर्माण आदि विभिन्न क्षेत्रों में विशेष योग्यता हासिल है , सद्बुद्धि की सबसे ज्यादा जरुरत उन्ही को है ताकि वे उसका सदुपयोग कर औरों को भी सही दिशा में कार्य करने की प्रेरणा दे सकें , तभी संसार में शांति आ सकती है अन्यथा बारूद के ढेर पर आज संसार है , दुर्बुद्धि कब , क्या कहर ला दे , कोई नहीं जानता l
25 August 2024
WISDOM ------
मनुष्य जीवन में अनेक मुसीबतों और परेशानियों का आना स्वाभाविक है l समस्याएं कभी समाप्त नहीं होतीं , निरंतर अपना रूप बदलकर हमारे समक्ष रहती हैं l लेकिन यदि व्यक्ति आध्यात्मिक है , उसे ईश्वर के विधान पर विश्वास है , उसमें परिश्रम , साहस , धैर्य , बुद्धि , सच्चाई , ईमानदारी , करुणा , दया , कर्तव्यपालन आदि सद्गुण हैं तो ये समस्याएं उसके मन को अशांत नहीं करेंगी l समस्याएं अपनी जगह रहेंगी लेकिन जीवन शांति से चलता रहेगा l हर रात्रि के बाद दिन होता है , यह विश्वास मन को शांत रखता है l लेकिन एक ऐसा व्यक्ति जो कर्मकांड तो करता है लेकिन दिखावा बहुत है , प्रकृति के नियमों पर , ईश्वर की सत्ता पर विश्वास नहीं है , अहंकार है , सद्गुणों की कमी है , उसके जीवन में छोटी सी भी समस्या आ जाए तो रिश्ते -नाते , मित्रों सबको बताकर , रो -धोकर उस समस्या को पहाड़ बना लेगा l जीवन में कठिनाइयाँ आएं तो यथा संभव मौन रहना चाहिए , लेकिन सबसे बोलने बताने से ऐसा व्यक्ति अपनी ऊर्जा तो व्यर्थ गँवाएगा और अहंकारी होने के कारण ईश्वर की कृपा से भी वंचित रहेगा l उसका अशांत मन सब तरफ अशांति ही फैलाएगा l आज संसार में ऐसे ही लोगों की भरमार है l अशांत मन के लोग ही संसार में युद्ध , हिंसा , दंगे , अराजकता के लिए जिम्मेदार है l
24 August 2024
WISDOM ------
राजा जनक अपनी साज -सज्जा के साथ मिथिलापुरी के राजपथ पर गुजर रहे थे l उनकी सुविधा के लिए सारा रास्ता पथिकों से शून्य बनाने में राजकर्मचारी लगे थे l राजा की शोभा यात्रा निकल जाने तक यात्रियों को अपने आवश्यक काम छोड़कर जहाँ तहां रुका रहना पड़ रहा था l अष्टावक्र को हटाया गया तो उन्होंने हटने से इनकार कर दिया और कहा ---- ' प्रजाजनों के आवश्यक कार्यों को रोककर अपनी सुविधा का प्रबंध करना राजा के लिए उचित नहीं है l राजा अनीति करे , तो ब्राह्मण का कर्तव्य है कि वह उसे रोके और समझाए l सो आप राज्य अधिकारीगण राजा तक मेरा संदेश पहुंचाएं और कहे कि अष्टावक्र ने अनुचित आदेश मानने से इनकार कर दिया l वे हटेंगे नहीं और राजपथ पर ही चलेंगे l राज्याधिकारी कुपित हुए और अष्टावक्र को बंदी बनाकर राजा के पास ले गए l राजा जनक ने जब सारा किस्सा सुना तो बहुत प्रभावित हुए और कहा --- " ऐसे निर्भीक ब्राह्मण राष्ट्र की सच्ची संपत्ति हैं l उन्हें दंड नहीं सम्मान दिया जाना चाहिए l राजा जनक ने अष्टावक्र से क्षमा मांगी और कहा --- 'मूर्खतापूर्ण आज्ञा राजा की ही क्यों न हो , तिरस्कार के योग्य है l आपकी निर्भीकता ने हमें अपनी गलती समझने और सुधारने का अवसर दिया l आज से आप राजगुरु रहेंगे और इसी निर्भीकता से सदा न्याय पक्ष का समर्थन करते रहने की कृपा करेंगे l उन्होंने प्रार्थना स्वीकार कर जनहित हेतु राजगुरु का पद स्वीकार किया l
22 August 2024
WISDOM -----
राबिया परम विदुषी महिला संत थीं l एक दिन कुछ लोगों ने उनसे कहा --- ' हमारे मन में शांति नहीं है , आनंद नहीं है l सब सुख वैभव है लेकिन मन बहुत बेचैन रहता है l " राबिया ने उस समय तो कुछ नहीं कहा l एक दिन उन लोगों ने देखा कि वे अपनी झोंपड़ी के बाहर कुछ ढूंढ रहीं हैं l लोगों के पूछने पर वे बोलीं --- " मैं सुई ढूंढ रही हूँ l यह सुनकर लोग भी उनके साथ सुई ढूँढने लगे l बहुत देर तक सुई खोजने पर भी नहीं मिली तो किसी ने पूछा ---- " आपकी सुई कहाँ कहाँ गिरी थी , ताकि उसी स्थान पर हम उसे खोजें ? " राबिया ने कहा --- " सुई तो मेरी झोंपड़ी के अन्दर खोई थी l " सुनकर सभी लोग हँसने लगे l उनमें से एक व्यक्ति ने कहा --- ' जब आपकी सुई झोंपड़ी के अन्दर खोई थी , तो आप उसे बाहर क्यों ढूंढ रही हैं ? ' राबिया ने कहा ---- " अंदर झोंपड़ी में अँधेरा है , लेकिन बाहर रौशनी है , इसलिए मुझे अँधेरे में सुई कैसे मिलती ? " लोग बोले ---- " अंदर प्रकाश करो और ढूंढों , सुई मिल जाएगी l " इस पर राबिया मुस्कराते हुए बोलीं ---- " अपने जीवन में तुम सभी इस ज्ञान का प्रयोग क्यों नहीं करते ? तुम बाहर आनंद की खोज करते हो , जबकि वह अंदर ही है l तुम्हे अंदर प्रकाश की व्यवस्था कर के उसे वहां ढूंढना चाहिए न कि बाहर l "
21 August 2024
WISDOM ------
श्रेणिक पुत्र मेघ ने भगवान बुद्ध से मन्त्रदीक्षा ली और उनके साथ रहकर तपस्या में लग गए l भगवान बुद्ध का कहना था कि आत्मोत्कर्ष के लिए केवल मन्त्र जप ही नहीं तप भी अनिवार्य है l अत: वे मेघ को बार -बार उस ओर धकेलने लगे l मेघ ने कभी रुखा भोजन नहीं किया था , अब उन्हें रुखा भोजन दिया जाने लगा l कोमल शैया के स्थान पर भूमि शयन , आकर्षक वेशभूषा के स्थान पर मोटे वल्कल वस्त्र और सुखद सामाजिक संपर्क के स्थान पर राजगृह आश्रम की स्वच्छता , सेवा -व्यवस्था एक -एक कर इन सब में जितना अधिक मेघ को लगाया जाता , उनका मन उतना ही उत्तेजित होता , महत्वाकांक्षा और अहंकार बार -बार सामने आकर खड़ा हो जाता और कहता ---- " ओ रे मूर्ख ! कहाँ गया वह रस ? जीवन के सुखोपभोग को छोड़कर कहाँ आ फँसा l " जब मन बहुत परेशान हो गया तो मेघ भगवान बुद्ध से कहने लगा --- " तात ! मुझे तो साधना कराइए, तप कराइए , जिससे मेरा अंत:करण पवित्र बने l " भगवान बुद्ध बोले ---- " तात ! यही तो तप है l विपरीत परिस्थितियों में भी मानसिक स्थिरता -- यह गुण है , जिसमें आ गया , वही सच्चा तपस्वी है , स्वर्ग विजेता है l उपासना तो उसका एक अंग मात्र है l " मेघ की आँखें खुल गईं और वे एक सच्चे योद्धा की भांति अपने मन से लड़ने , मन को जीतने चल पड़े l
20 August 2024
WISDOM ---
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " यदि व्यक्ति में असाधारण योग्यता के साथ लगन है तो वह अपने जीवन में कुछ भी हासिल कर सकता है l यदि साधारण योग्यता के साथ कार्य करने की लगन है तो वह जीवन में कुछ -न -कुछ विशेष कर ही लेता हैं l लेकिन यदि व्यक्ति में लगन ही नहीं है तो ऐसा व्यक्ति जीवन में कुछ खास नहीं कर पाता l लगन के साथ अभ्यास कर के व्यक्ति अपनी कमजोरी को ताकत में बदल सकता है l " एक प्रेरणादायक कहानी है ------ जापान के एक दस वर्षीय बच्चे को जूडो सीखने का बहुत शौक था , लेकिन उसका बांया हाथ नहीं था l फिर भी वह अपने माता -पिता से जूडो सीखने की जिद करने लगा l आखिरकार उसके माता -पिता उसे मशहूर मार्शल आर्ट्स गुरु के पास ले गए l गुरु ने जब उस बालक जिसका नाम ओकायो था , उसे देखा तो उन्हें अचरज हुआ l उन्होंने उससे पूछा --- " इस हालत में तुम अपने प्रतिद्वंदी का मुकाबला कैसे करोगे l " ओकायो ने कहा ---- " यह बताना आपका काम है l मैं तो बस इतना जानता हूँ कि मुझे सभी को हराकर एक दिन खुद ' मास्टर ' बनना है l मार्शल आर्ट्स गुरु उसकी प्रबल इच्छा शक्ति से बहुत प्रभावित हुए और उसे अभ्यास कराने लगे l कुछ दिन सीखने पर ओकायो को यह महसूस हुआ कि उसके गुरु दूसरे लड़कों को अलग -अलग दांव -पेच सिखा रहे हैं , लेकिन उसे एक ही तरह की किक लगाने का ही बार -बार अभ्यास करा रहे हैं l उसने गुरु से अपने मन की शंका जाहिर भी की , लेकिन गुरु ने उसे दूसरों पर ध्यान न देते हुए उसी अभ्यास में महारत हासिल करने के लिए कहा l सभी शिष्यों के सालोंसाल अभ्यास के बाद गुरु ने सबको बुलाया और कहा --- " अब एक प्रतिस्पर्धा आयोजित की जाएगी और जीतने वाले को ' सेंसेई ' ( मास्टर ) की उपाधि दी जाएगी l " नियत समय पर प्रतिस्पर्धा शुरू हुई l ओकायो ने पहले दो मैच बड़ी आसानी से जीते l तीसरा मैच कुछ कठिन था लेकिन कुछ संघर्षों के बाद ओकायो ने तेज किक के साथ अपने प्रतिद्वंदी को गिरा दिया और विजयी हुआ l और भी कई मैच जीतने के बाद ओकायो विजेता हुआ और उसे सेंसेई ' घोषित किया गया l सेंसेई घोषित होने के बाद ओकायो ने गुरु से अपनी जीत का रहस्य पूछा l गुरु ने कहा --- " प्रतिस्पर्धा में तुमने जिस किक का इस्तेमाल किया , उससे बचने का केवल एक ही उपाय था --- कि विरोधी का बांया हाथ पकड़ कर गिरा दो और तुम्हारा तो बांया हाथ ही नहीं है l इसलिए तुम्हारे प्रतिद्वंदी से कुछ करते नहीं बना l " ओकायो समझ गया कि लगातार लगन से किए गए अभ्यास के कारण उसकी कमजोरी उसकी सबसे बड़ी ताकत बन गई l
18 August 2024
WISDOM ----
आचार्य ज्योतिपाद संध्या के बाद उठे ही थे कि एक व्यक्ति जिसका नाम आत्मदेव था , उसने उनके चरण पकड़ लिए और बोला ---- " आप सर्वसमर्थ हैं , एक संतान दे दीजिए , आपका जीवन भर ऋणी रहूँगा l " आचार्य बोले ---- " संतान से सुख पाने की कामना व्यर्थ है l तुम व्यर्थ इस झंझट में मत पड़ो l तुम्हारे भाग्य में संतान नहीं है l जिसने पिछले जन्म में गुरु का वरण नहीं किया , अपनी संपत्ति को लोकहित में नहीं लगाया , वह अगले जन्म में संतानहीन होता है l जाओ , अब तुम्हारी उम्र भी अधिक है संतान मिल भी गई तो कोई औचित्य नहीं है l " आत्मदेव ने आचार्य के चरण नहीं छोड़े , बोला ---" या तो पुत्र लेकर लौटूंगा या आत्मदाह कर लूँगा l " आचार्य ने कहा ---- " श्रेष्ठ आत्माएं ऐसे ही नहीं आतीं l कोई अपवित्र आत्मा ही हाथ लगती है l चलो विधाता की ऐसी ही इच्छा है तो तुम यह फल अपनी पत्नी को खिलाना l धर्मपत्नी से कहना कि वह एक वर्ष तक नितांत पवित्र रहकर कुछ दान करे l " आत्मदेव प्रसन्न होकर लौटा और फल अपनी पत्नी धुन्धुली को देकर आचार्य का सन्देश भी कहा l पत्नी ने सोचा ---पवित्रता का आचरण और वह भी एक साल तक , मैं न कर सकूंगी l उसने फल गाय को खिला दिया l समय पर बहन का पुत्र गोद ले लिया , उसका नाम रखा ' धुंधकारी ' l बाल्यावस्था से ही वह दुराचारी , जुआरी और निम्न वृत्तियों में लीन रहता था l माता -पिता कुढ़कर , दुःख से मर गए l धुन्धुली ने वह फल गाय को खिलाया था अत" गोमाता ने ' गोकर्ण ' नामक पुत्र को जन्म दिया , वह पशु योनि में भी परम विद्वान और धर्मात्मा था l धुंधकारी की अकाल मृत्यु हुई , वह प्रेत योनि में था l गोकर्ण ने भागवत कथा कहकर उसे प्रेत योनि से मुक्त कराया l
17 August 2024
WISDOM ------
बालधि ऋषि के नवजात पुत्र की मृत्यु हो गई l इस घटना से वे अत्यंत विचलित हो गए l उन्होंने देवराज इंद्र की उपासना कर के एक अमर पुत्र प्राप्त करने का निश्चय किया l इस संकल्प के साथ उन्होंने इंद्र की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया l इन्द्रदेव प्रकट हुए और ऋषि बलाधि से वर मांगने को कहा l बलाधि बोले --- " देव ! मुझे एक ऐसा पुत्र दें , जिसकी कभी मृत्यु न हो l " देवराज इंद्र ने कहा ---- " ऋषिवर ! मनुष्य देह का अमर हो पाना तो संभव नहीं है , कोई अन्य वर मांगिए l " तब सोचकर ऋषि ने कहा ---- " आप मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिए जो तब तक जीवित रहे , जब तक यह पर्वत सामने अचल खड़ा है l " इंद्र ने कहा 'तथास्तु ' और चले गए l कुछ समय बाद ऋषि को पुत्र की प्राप्ति हुई , उसका नाम मेधावी रखा l मेधावी को बाल्यावस्था से ही अहंकार ही गया कि उसे कोई मार नहीं सकता , वह बहुत उद्दंड हो गया l उसके व्यवहार से त्रस्त होकर लोग बलाधि ऋषि के पास गए l ऋषि ने पुत्र को समझाया --- " पुत्र ! अहंकार ही मनुष्य के पतन और सर्वनाश का कारण है l हमें कभी देव कृपा का अहंकार नहीं करना चाहिए l " मेधावी को पिता का समझाना अच्छा न लगा और वह उन्हें भी अपशब्द कहकर वहां से निकल पड़ा l मार्ग में उसकी भेंट ऋषि धनुषाक्ष से हुई l जब उसने उनके साथ भी उद्दंड व्यवहार किया तो ऋषि धनुषाक्ष ने उसे तत्काल मृत्यु का शाप दिया मेधावी को मिले वर के कारण वह जीवित खड़ा था l ऋषि को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनका वचन व्यर्थ कैसे हुआ ? उन्होंने तत्काल ध्यान लगाकर सत्य का पता लगाया और मेधावी को मिले वरदान का बोध होते ही उन्होंने हाथी का रूप धारण कर अपने प्रहारों से पहाड़ को ध्वस्त कर दिया l पहाड़ के गिरते ही मेधावी की मृत्यु हो गई l ऋषि बलाधि यह समाचार मिलने पर बोले ---- " अमर पुत्र प्राप्त करने की अपेक्षा सदाचारी पुत्र होता , तो मुझे ज्यादा संतोष होता l "
14 August 2024
WISDOM
स्वामी विवेकानंद ने योग सीखने आई एक युवती से कहा था कि तुम्हे इस मार्ग पर गतिशील होने में कई जन्म लगेंगे l वह युवती कक्ष में आकर बैठी ही थी और सिर्फ इतना ही पूछ पाई थी कि मुझे सिद्धि प्राप्त करने में कितना समय लगेगा ? कितने महीनों में मैं साधना पूरी कर संकूंगी ? स्वामी जी ने इस प्रश्न का उत्तर दिया था और कारण भी तुरंत बता दिया था कि कक्ष में प्रवेश करने से पहले तुमने जूते ऐसे उतारे , जैसे उन्हें फेंक रही हो l कुरसी की बांह लगभग मरोड़ते हुए अंदाज में खींची और धमककर बैठ गई l फिर बैठे -बैठे ही इसे मेज के पास घसीटते हुए से खींचा और व्यस्थित किया l एक मिनट के इस व्यवहार में स्वामी जी ने न तो हड़बड़ी को कारण बताया और न ही फूहड़ता को l युवती ने पूछा भी नहीं था और स्वामी जी ने कारण बताया कि हम जिन वस्तुओं को काम में लाते हैं , जो हमारी जीवन यात्रा और स्थिति में सहायक हैं और जो हमारे व्यक्तित्व के ही एक अंग हैं , उनके प्रति क्रूरता हमारी चेतना के स्तर को दर्शाती है l दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं , व्यक्तियों और प्राणियों के प्रति भी मन में संवेदना नहीं है , तो विराट अस्तित्व से किसी व्यक्ति का तादात्म्य कैसे जुड़ सकता है ? अपने आसपास के जगत के प्रति जो संवेदनशील नहीं है , वह परमात्मा के प्रति कैसे खुल सकता है ? संवेदना व्यक्ति को विराट के प्रति खोलती है , उसे ग्रहणशील बनाती है l स्वामी चिन्मयानन्द ने लिखा है कि संवेदनशील व्यक्ति जड़ वस्तुओं के प्रति भी इस तरह व्यवहार करता है जैसे वे उसके अति आत्मीय स्वजन हों l न केवल आत्मीय स्वजन हों , बल्कि उनके अपने ही शरीर का एक हिस्सा हों l
11 August 2024
WISDOM ------
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " भगवान पत्र -पुष्पों के बदले नहीं , भावनाओं के बदले प्राप्त किए जाते हैं और वे भावनाएं आवेश , उन्माद या कल्पना जैसी नहीं , वरन सच्चाई की कसौटी पर खरी उतरने वाली होनी चाहिए l उनकी सच्चाई की परीक्षा मनुष्य के त्याग , बलिदान , संयम , सदाचार एवं व्यवहार से होती है l " ---------गुजरात की राजमाता मिनल देवी ने भगवान सोमनाथ का विधिवत् अभिषेक कर के उन्हें स्वर्ण दान किया l राजमाता के मन में अहंकार आ गया कि भगवान को ऐसा दान किसी ने नहीं किया होगा l रात्रि को स्वप्न में भगवान सोमनाथ ने राजमाता से कहा ---- " मेरे मंदिर में एक गरीब महिला आई है l उसका आज का पुण्य तुम्हारे स्वर्ण दान से कई गुना ज्यादा है l " राजमाता ने उस महिला को महल में बुलवा लिया l राजमाता उससे बोलीं ---- " तुम अपना संचित पुण्य दे दो , उसके बदले में जितनी भी धनराशि लगेगी , वह मैं देने को तैयार हूँ l " वह गरीब महिला बोली ---- " राजमाता ! मुझ गरीब से भला क्या पुण्य कार्य हुआ होगा ? मुझे तो यह भी पता नहीं कि मैंने क्या पुण्य किया है , तो मैं आपको क्या अर्पित करुँगी ? " राजमाता ने उससे उसके विगत दिवस के क्रियाकलाप के विषय में पूछा ताकि यह पता चल सके कि उसे किस कार्य हेतु अपार पुण्य मिला है l प्रत्युत्तर में गरीब महिला बोली ----- " राजमाता ! मैं तो अत्यंत गरीब हूँ l मुझे कल किसी व्यक्ति ने दान में एक मुट्ठी बूंदी दी थी l उसमे से आधी बूँदी मैंने भगवान सोमेश्वर को भोग में चढ़ा दी और शेष आधी खाने चली थी कि एक भिखारी ने मुझसे मांग ली तो वह मैंने उसे दे दी l " राजमाता समझ गईं कि उस गरीब महिला का निष्काम कर्म उनके स्वर्णदान से बढ़कर है l भगवान भावनाओं का मोल समझते हैं l
10 August 2024
WISDOM ----- कर्मों के फल से कोई बचता नहीं
एक दिन प्रव्रज्या करते हुए तीर्थंकर भगवान महावीर कौशाम्बी नगर पहुंचे l वहां भगवान महावीर अपने प्रवचन में कह रहे थे ----- " इस धरती पर जितने भी प्राणी हैं , वे सब अपने -अपने संचित कर्मों के कारण ही संसार में चक्कर लगाते हैं l जीवन -मरण के चक्रव्यूह में फँसते हैं l अपने किए अच्छे -बुरे , शुभ -अशुभ , पुण्य कर्मों के कारण ही विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं l अपने किए हुए कर्मों का फल हर प्राणी को भोगना ही पड़ता है l --------------- " भगवान महावीर ने देखा जब वे प्रवचन कर रहे थे , तब उनके पास बैठा उनका शिष्य गौतम स्वामी बार -बार पीछे मुड़कर देख रहा था , उसका मन सत्संग में नहीं था l जब सत्संग पूरा हुआ तब भगवान महावीर ने गौतम स्वामी से इसका कारण पूछा l गौतम स्वामी ने कहा ---- " भगवन ! आज मैं सत्संग में आए उस वृद्ध व्यक्ति को देख रहा था , जो अँधा है और शरीर पर जखम और घाव की पीड़ा से कराह रहा है l क्या इससे भी अधिक कोई और अभागा और दुःखी हो सकता है l " भगवान महावीर ने कहा ---- " वत्स ! उस अंधे का तो कुछ पुण्य भी है l आँखों के सिवाय उसके और अंग तो ठीक हैं , वह तो चल -फिर भी सकता है , लेकिन यहाँ के राजा विजय प्रताप का बालक मकराक्ष तो बिना हाथ -पैर का मांस के पिंड जैसा है l वह राजघराने में ऐशोआराम की वस्तुओं के बीच पल रहा है l राजमहल में जन्म लेने के बावजूद राजसी सुखों से वंचित है और दारुण दुःख झेल रहा है l " गौतम स्वामी ने पूछा --- " भगवन ! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं राजमहल जाकर उसे देख आऊँ ? " भगवान महावीर ने अनुमति दे दी l गौतम स्वामी राजमहल पहुंचे तब राजा ने उनकी आवभगत की और कहा --- " आपके आने से हमारा राजमहल पवित्र हो गया l आज्ञा दें , हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ? " गौतम स्वामी ने कहा --- " राजन ! क्या आपके राजमहल में किसी ऐसे जिव का पालन हो रहा है , जो अंगविहीन मांसपिंड जैसा है ? " यह सुनकर राजा -रानी को बहुत आश्चर्य हुआ क्योंकि यह बात राजमहल के बाहर किसी को पता नहीं थी l गौतम स्वामी बोले --- " मुझे यह मेरे गुरु ने बताया और उनके आदेश से ही मैं आपके पुत्र मकराक्ष को देखने आया हूँ l " राजा उन्हें उस एकांत कमरे में ले गए जहाँ उनके पुत्र मकराक्ष को रखा जाता था l गौतम स्वामी ने देखा कि अंगविहीन मकराक्ष वहां दारुण पीड़ा से कराह रहा है l राजमहल से वापस आकर उन्होंने भगवान महावीर से पूछा --- " मकराक्ष ने ऐसा कौन सा कर्म किया होगा , जो राजमहल में जन्म लेकर भी दारुण दुःख झेल रहा है l " भगवान महावीर बोले ---- " मकराक्ष अपने पूर्व जन्म में इसी क्षेत्र के सुकर्ण पुर नगर का स्वामी था उसके अधीन अन्य पांच सौ ग्राम भी थे l वह लूटमार , व्यभिचार , अपहरण आदि बुरे कर्मों में ही निरत रहता था l वह अपनी प्रजा पर घोर अत्याचार कर उसे बहुत दुःख देता था l वह साधु -संतों का अपमान और सत्संग का निरादर करता था l पूर्व जन्म के इन बुरे कर्मों के कारण ही वह अंगविहीन मांसपिंड के रूप में जन्मा है और राजमहल में जन्म लेने के बावजूद राजसी सुखों से वंचित है l "
9 August 2024
WISDOM -------
आचार्य उपकौशल यात्रा पर निकले थे , रात हो जाने के कारण उन्हें वन में एक वृक्ष के नीचे रुकना पड़ा l सोने के कुछ देर बाद उन्हें किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी l उन्होंने लकड़ियाँ जलाकर देखा , पर कोई दिखाई नहीं दिया l तब उन्होंने कहा ---- "यहाँ कौन है ? सामने क्यों नहीं आते ? " उत्तर मिला ---- " मैं निकृष्ट प्रेत आपके ब्रह्मतेज के सामने कैसे प्रकट हो सकता हूँ ? कृपया मेरे उद्धार का मार्ग बताएं ? " आचार्य ने उसकी इस दशा का कारण पूछा , तो उसने कहा --- " भोगों को प्राप्त करने के लिए मैंने कभी भी कर्मों की नैतिकता की परवाह नहीं की और आजीवन ऐसा जीवन बिताने पर भी मेरी वासनाओं की संतुष्टि न हो सकी , इस कारण मृत्यु के उपरांत प्रेत योनि में भटक रहा हूँ l " आचार्य कहने लगे --- " यह मन ही अनियंत्रित होने पर पतन का कारण बनता है और यदि मन को साध लिया जाए तो यही मुक्ति का हेतु भी सिद्ध होता है l " आचार्य ने अपने तप , पुण्य का एक अंश देकर उसके कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया l इसके परिणामस्वरूप उस प्रेत का पुनर्जन्म हुआ और स्मृति रहने के कारण वह साधना और लोकसेवा करते हुए मुक्ति के पथ पर प्रशस्त हुआ l
8 August 2024
WISDOM -----
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- " संयम कर लेना मनुष्य जीवन की सफलता का एक कदम है और इस पर पूरी तरह से अपना नियंत्रण कर लेना ही योगमय जीवन की शुरुआत है l संयम के माध्यम से न केवल हमें शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है , बल्कि इसके द्वारा सदविवेक का जागरण होता है , जिससे हम अपनी ऊर्जाओं और क्षमताओं का सदुपयोग कर पाते हैं l " -------- भगवान बुद्ध के समय का प्रसंग है ----- एक सेठ जी अपने भारी -भरकम और बेडौल शरीर के कारण सेवकों की मदद से भगवान बुद्ध के दर्शन के लिए गए l शारीरिक स्थिति के कारण झुककर प्रणाम नहीं कर पा रहे थे , अत: खड़े -खड़े ही अभिवादन कर बोले ---- " भगवन ! मेरा शरीर अनेक व्याधियों का घर बन चुका है l रात को न नींद आती है और न ही दिन में चैन से बैठ पाता हूँ l मुझे रोग मुक्ति का साधन बताने की कृपा करें l ' भगवान बुद्ध ने उसे करुणा भरी द्रष्टि से देखा और बोले ------ " भंते ! प्रचुर भोजन करने से उत्पन्न आलस्य और निद्रा , भोग व अनंत इच्छाओं की कामना , शारीरिक श्रम का अभाव ---- ये सब रोग पनपने के कारण हैं l जीभ पर नियंत्रण रखने , संयमपूर्वक सादा भोजन करने , शारीरिक श्रम करने , सत्कर्म करने और अपनी इच्छाएं सीमित करने से ये रोग विदा होने लगते हैं l असीमित इच्छाएं और अपेक्षाएं शरीर को घुन की तरह जर्जर बना डालती हैं , इसलिए उन्हें त्यागो l " सेठ को भगवान बुद्ध की बातों का मर्म समझ में आया और उसने उनके वचनों को जीवन में धारण करने और संयमित जीवन अपनाने का संकल्प लिया l इसके परिणामस्वरूप सेठ के स्वास्थ्य में सुधार हुआ और अब वह सेवकों के सहारे के बिना अकेले ही भगवान बुद्ध से मिलने गया और वहां पहुंचकर उसने झुककर प्रणाम किया और कहा ---- " शरीर का रोग तो आपकी कृपा से दूर हो गया l अब चित्त का प्रबोधन कैसे हो ? " बुद्ध ने कहा ---- " अच्छा सोचो , अच्छा करो और अच्छे लोगों का संग करो l विचारों का संयम चित्त को शांति और संतोष देगा l " सेठ ने भगवान बुद्ध के बताए मार्ग पर चलकर अपने जीवन को सार्थक किया l श्रीमद् भगवद्गीता में 'शांति ' को मनुष्य जीवन का परम सुख कहा गया है l
7 August 2024
WISDOM ------
महर्षि व्यास के पुत्र शुकदेवजी परम वैरागी थे l जन्म लेते ही तप करने जंगल चल पड़े l पिता ने उन्हें आश्रम परंपरा समझाई l कहा ---- " यह जरुरी है l यह क्रम पूरा कर के ही तप करना l " शुकदेव पांच वर्ष तक गर्भ में रहे l l उन्होंने पिता व्यास जी से तर्क किया कि यदि ब्रह्मचर्य पालन से ही मुक्ति होती तो सभी अविवाहित रहते l यदि विवाह ही जरुरी था तो सभी गृहस्थों को मुक्ति मिलती l यदि वानप्रस्थ ही अनिवार्य था तो सारे पशु , बन्दर , भालू आदि मुक्त हो जाते l यह कहकर वे वन चले गए l व्यास जी ने ऋषियों से परामर्श लिया कि क्या करें , ताकि वह लौटे l सभी ने एक मत से कहा कि जहाँ शुकदेव तपस्या कर रहे हैं , वहां आपके शिष्य जाकर आपके ही द्वारा रचित भागवत कथा का कीर्तन करें l त्रिलोक की कोई भी चीज उनके मन को आकर्षित नहीं करेगी , उन्हें विराम मिलेगा तो भगवान की कथा से l शिष्यों ने मधुर गान किया तो उनकी समाधि टूटी l उन्होंने पूछा ---- " आप लोग कौन हैं और यह कथा किसने लिखी ? इसे सुनकर हमें समाधि से भी अधिक तृप्ति मिली l " शिष्यों ने कहा --- " हमारे गुरु ने ऐसे हजारों श्लोक रचे हैं l " ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से वे वापस लौटे तो आश्रम कुछ जाना -पहचाना लगा l अपने पिता को देखा तो ज्ञान प्राप्ति की इच्छा सामने रखी और कहा पिताश्री --- " भागवत कथा सुनने के लिए पढ़ लेंगे लेकिन उसके बाद एक दिन भी नहीं रुकेंगे l ऐसा ही हुआ , शुकदेव जी पुन: जंगल चले गए l
WISDOM ------
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने प्रज्ञा पुराण में लिखा है -- " परोपकार रहित मनुष्य के जीवन को धिक्कार है उसकी तुलना में तो पशु श्रेष्ठ है , उसका कम से कम चमड़ा तो काम आ जायेगा , परन्तु मानवता रहित मनुष्य का जीवन तो किसी के भी उपयोग का नहीं रहता l हमें इंसानियत को ही अपना जीवन लक्ष्य मानकर जीवन जीना चाहिए l " -------- स्वर्ग में किसी की शोभा यात्रा निकल रही थी l किसी ने पूछा ---- " इस पालकी में कौन बैठा है ? " उत्तर मिला ---- " एक शेर बैठा है l " प्रश्न कर्ता ने पूछा ---- " शेर को स्वर्ग का वैभव कैसे प्राप्त हुआ ? " उत्तर मिला ---- " एक रात को बहुत आँधी , तूफान व बरसात होने लगी थी l शेर अपनी गुफा को लौट रहा है l उसे गंध से मालूम पड़ा कि उसकी अँधेरी गुफा में एक बकरी आकर बैठ गई है l " " शेर ने विचार किया कि यदि बकरी मुझे देख लेगी तो भयभीत हो जाएगी , इसलिए वह गुफा के बाहर ही बैठ गया l वह रात भर पानी में भीगता रहा ताकि बकरी को कष्ट न हो , इसलिए स्वयं कष्ट उठाता रहा l बकरी के प्राण बचाने के पुण्य के फलस्वरूप ही उसको स्वर्ग मिला है l " परोपकार कभी भी व्यर्थ नहीं जाता l
5 August 2024
WISDOM ------
उज्जयिनी नगर में एक निडर व साहसी युवक रहा करता था l उसे ज्ञात हुआ कि राज्य के राजा के नि:संतान मर जाने के कारण नए राजा की तलाश हो रही है l उस युवक ने उस हेतु स्वयं का नाम प्रस्तावित करने की सोची l राज्य के मंत्रियों ने उसे बताया कि तुमसे पहले भी अनेक लोग इस हेतु आए , परन्तु किसी शापवश उनमें से प्रत्येक का निधन राज्याभिषेक की रात्रि में ही हो गया l जीवन सुरक्षित चाहते हो तो ऐसा न करो l युवक निडर था l उसने बिना किसी भय के चुनौती स्वीकार कर ली l राज्याभिषेक होने के उपरांत उसने विचार किया कि अवश्य किसी देव या दानव का का रोष इस राज्य पर रहा होगा , उसे संतुष्ट कर देने से इस समस्या से बचा जा सकता है l उसने रात्रि में अपने कक्ष में अनेक व्यंजन बनवा कर रखे और वह स्वयं एक कोने में तलवार लेकर बैठ गया l रात को देवराज इंद्र का द्वारपाल , अग्निवेताल वहां आया और उन व्यंजनों के देखकर प्रसन्न हो गया l उन्हें ग्रहण कर के वह बोला ---- " राजन ! यदि तुम नित्य ऐसे व्यंजन का प्रबंध करो तो मैं तुम्हे अभयदान दूंगा l " राजा ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और उससे कहा ---- " तुम देवराज इंद्र से पूछकर के बताओ कि मेरी उम्र कितनी है l " अगले दिन अग्निवेताल ने उसे बताया --- " उसकी उम्र सौ वर्ष है l " यह सुनते ही राजा ने तलवार अग्निवेताल के सिर पर रख दी और कहा ---- " इसका अर्थ है कि तुम मेरा अंत सौ वर्ष तक नहीं कर सकते l " अग्निवेताल राजा की बुद्धिमत्ता और निडरता से अत्यंत प्रसन्न हुआ और उन्हें अक्षुण्ण राज्य का वरदान दिया l वह राजा ही आगे चलकर सम्राट विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए l
3 August 2024
WISDOM -----
जीवन के संघर्ष और समुद्री तूफ़ान की आँधियों से दुःखी एक नाविक जहाज से उतारकर आया तो द्वीप के किनारे खड़ी एक अविचलित , अडिग , चट्टान को देखकर बड़ी शांति को प्राप्त हुआ l स्वच्छ , सुन्दर सी उस चट्टान पर खड़े होकर , वह चारों ओर देखने लगा l उसने देखा कि द्वीप के एक कोने में स्थित उस चट्टान पर निरंतर समुद्र की उत्ताल तरंगों का आघात हो रहा है , तो भी चट्टान के मन में न कोई रोष है , न विद्वेष l l न कोई ऊब , न उत्तेजना l मरने की भी उसने कभी इच्छा नहीं की l नाविक का ह्रदय श्रद्धा से भर गया l उसने चट्टान से पूछा ----- " तुम पर चारों ओर से आघात लग रहे हैं , फिर भी तुम परेशान नहीं हो l तुम्हारी इस सहनशीलता का कारण क्या है ? क्या तुम इस स्थिति में स्वयं को निराश नहीं मानती l " चट्टान की आत्मा धीरे से बोली ---- " तात ! हम निराश हो गए होते तो एक क्षण ही सही दूर से आए आप जैसे अतिथियों को विश्राम देने , उनका स्वागत करने से वंचित रह जाते l संघर्षों से लड़ने में ही हमें आनंद आता है l " नाविक ने प्रेरक भाव भरकर स्वयं से कहा ----- " जीवन में कितने ही संघर्ष आएं , मैं भी अब इस चट्टान की तरह जिऊंगा , ताकि हमारी न सही , हमारी भावी पीढ़ी और मानवता के आदर्शों की रक्षा हो सके l
2 August 2024
WISDOM ------
सामान्य जन प्रेरणा तभी लेते हैं , जब आदर्शों की चर्चा करने वाले , नीतिवेत्ता , नियम बनाने वाले स्वयं भी उनका पालन करें l सम्राट बिम्बसार के शासन की घटना है ---- एक साल लू अधिक चली l मजबूत सामग्री उपलब्ध न होने के कारण प्रजा के झोंपड़े फूस के बने थे l न जाने लोग क्यों लापरवाह रहने लगे थे इसलिए आए दिन अग्निकांड की घटनाओं के समाचार दरबार में पहुँचते l बिम्बसार जैसे दयालु राजा के लिए यह स्वाभाविक था कि वह पीड़ितों की सहायता करें l बहुत अग्निकांड हुए तो सहायता राशि का खरच भी पहले की तुलना में बहुत बढ़ गया l लोगों की लापरवाही रोकने के लिए राजाज्ञा प्रसारित हुई कि जिसका घर जलेगा , उसको एक वर्ष श्मशान में रहने का दंड भुगतना पड़ेगा l सब लोग चौकन्ने हो गए l एक दिन राजा के भूसे के कोठे में आग लगी और देखते -देखते जल गया l समाचार मिलने पर दरबार से राजा को श्मशान में रहने की आज्ञा हुई l दरबारियों ने समझाया ---- " नियम तो प्रजा जनों के लिए होते हैं , राजा तो उन्हें बनाता है , इसलिए उस पर वो लागू नहीं होते l " परन्तु बिम्बसार ने किसी की नहीं मानी l वे फूस की झोंपड़ी बनाकर श्मशान में रहने लगे l समाचार फैला तो सतर्कता सभी ने अपनाई और अग्निकांड की दुर्घटनाओं का सिलसिला समाप्त हो गया l
1 August 2024
WISDOM ------
पाताल नरेश शंभर बड़ा शक्तिशाली असुर था l उसने देवलोक के सभी देवताओं को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया l देवता चिंतित होकर प्रजापति ब्रह्मा के पास गए और उनसे मुक्ति का उपाय पूछा l ब्रह्माजी बोले ---- " देवों ! असुरों का एक अस्त्र है हिंसा l वे प्राणियों का वध कर के अपनी शक्ति बढ़ाते हैं l यही पाप एक दिन उनके विनाश का कारण बनेगा l " फिर ऐसा ही हुआ l शंभर के तीन प्रधान सेनापतियों ---दाम , व्याल और कष्ट ने सारे राज्य में मांसाहार का प्रचार किया l एक दिन एक वधिक ने व्याल से कहा ----- " जब आप भी मांस खाते हो तो पशुओं का वध स्वयं अपने हाथ से किया करें l " वधिक की बात मानकर जब तीनों ने एक -एक पशु का वध किया तो मरते समय पशु की छटपटाहट देखकर तीनों के मन में मृत्यु का भय समा गया l भय के उत्पन्न होते ही उनकी घटने लगी और एक दिन देवताओं ने फिर से उन पर धावा बोल दिया l इस बार वे भयवश वीरता पूर्वक नहीं लड़ सके और युद्ध में मारे गए l हिंसा का पाप अंतत: विनाश का कारण बनता है l दूसरों को पीड़ित देखकर स्वयं का भी मनोबल टूटता है l