आचार्य ज्योतिपाद संध्या के बाद उठे ही थे कि एक व्यक्ति जिसका नाम आत्मदेव था , उसने उनके चरण पकड़ लिए और बोला ---- " आप सर्वसमर्थ हैं , एक संतान दे दीजिए , आपका जीवन भर ऋणी रहूँगा l " आचार्य बोले ---- " संतान से सुख पाने की कामना व्यर्थ है l तुम व्यर्थ इस झंझट में मत पड़ो l तुम्हारे भाग्य में संतान नहीं है l जिसने पिछले जन्म में गुरु का वरण नहीं किया , अपनी संपत्ति को लोकहित में नहीं लगाया , वह अगले जन्म में संतानहीन होता है l जाओ , अब तुम्हारी उम्र भी अधिक है संतान मिल भी गई तो कोई औचित्य नहीं है l " आत्मदेव ने आचार्य के चरण नहीं छोड़े , बोला ---" या तो पुत्र लेकर लौटूंगा या आत्मदाह कर लूँगा l " आचार्य ने कहा ---- " श्रेष्ठ आत्माएं ऐसे ही नहीं आतीं l कोई अपवित्र आत्मा ही हाथ लगती है l चलो विधाता की ऐसी ही इच्छा है तो तुम यह फल अपनी पत्नी को खिलाना l धर्मपत्नी से कहना कि वह एक वर्ष तक नितांत पवित्र रहकर कुछ दान करे l " आत्मदेव प्रसन्न होकर लौटा और फल अपनी पत्नी धुन्धुली को देकर आचार्य का सन्देश भी कहा l पत्नी ने सोचा ---पवित्रता का आचरण और वह भी एक साल तक , मैं न कर सकूंगी l उसने फल गाय को खिला दिया l समय पर बहन का पुत्र गोद ले लिया , उसका नाम रखा ' धुंधकारी ' l बाल्यावस्था से ही वह दुराचारी , जुआरी और निम्न वृत्तियों में लीन रहता था l माता -पिता कुढ़कर , दुःख से मर गए l धुन्धुली ने वह फल गाय को खिलाया था अत" गोमाता ने ' गोकर्ण ' नामक पुत्र को जन्म दिया , वह पशु योनि में भी परम विद्वान और धर्मात्मा था l धुंधकारी की अकाल मृत्यु हुई , वह प्रेत योनि में था l गोकर्ण ने भागवत कथा कहकर उसे प्रेत योनि से मुक्त कराया l
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