पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं -----' ईर्ष्या एक प्रकार की मनोविकृति है l इससे भौतिक क्षेत्र में विफलता और आध्यात्मिक क्षेत्र में अवगति प्राप्त होती है l जो इस मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो गया , समझा जाना चाहिए कि उसने अपनी प्रगति के सारे द्वार बंद कर लिए l " जिसके पास सभी भौतिक सुख -सुविधाएँ है , वह भी अपने जीवन से संतुष्ट नहीं है l उसे दूसरे को सुखी देखकर ईर्ष्या होती है l जो बहुत ईर्ष्यालु हैं , उनकी बुद्धि काम करना बंद कर देती है l उन्हें अपनी आगे की तरक्की का कोई रास्ता नहीं दीखता इसलिए वे अपनी सारी ऊर्जा दूसरों की जिंदगी में झाँकने में लगा देते हैं l कोई खुश है तो क्यों खुश है ? कोई हँस रहा है तो क्यों ? वे हर संभव तरीके से दूसरे को कष्ट देने का हर संभव प्रयास करते हैं l ऐसा करने से ही उनको सुकून मिलता है l ईर्ष्या का एक दुःखद पहलू भी है l व्यक्ति जिससे ईर्ष्या करता है , उसे नीचा गिराने के हर संभव प्रयास भी करता है लेकिन उसका प्रतिद्वंदी उस पर कोई ध्यान ही न दे और अपनी प्रगति के पथ पर आगे बढ़ता जाए तो ईर्ष्यालु व्यक्ति का अहंकार चोटिल होता है , घाव की भांति रिसने लगता है l उसके सारे प्रयास असफल हो गए l आचार्य जी ने हमें जीवन जीने की कला सिखाई है कि संसार से मिलने वाले मान -अपमान , प्रशंसा -निंदा की परवाह न करो , उस पर कोई प्रतिक्रिया न दो , अपने पथ पर आगे बढ़ो l