जापान  के  उन्नायक  मुत्सु  हीटो  का  जन्म  जापान  के  अति  प्राचीन  राजवंश  में  1852  में  हुआ  था  ।  उनके  पिता  ने  उन्हें  सामान्य  बालकों  की  तरह  शिक्षा  दिलवाने  का  निश्चय  किया  ।  जब  उनसे  गलतियाँ  होती  तो  उन्हें  भी  सामान्य  विद्दार्थियों  की  तरह  दण्डित  किया  जाता,  इसका  परिणाम  यह  हुआ  कि  उनका  विकास  कर्तव्यनिष्ठ,अनुशासित,  संयमी  और  परिश्रमी  व्यक्तित्व  के  रूप  में  होने  लगा        1867  में  पिता  की  मृत्यु  के  बाद  वे  सम्राट  बने  । उन्होंने  देश  के  प्रतिष्ठित  व्यक्तियों  जिसमे  अधिकांश  जमीदार  थे  बुलाकर  एक  सभा  का  संगठन  किया,  जिसका  उद्देश्य  लोककल्याण  के  कार्यक्रम  बनाना  और  उनके  क्रियान्वयन  की  व्यवस्था  करना  था  ।
विशव के इतिहास में पहली बार जमींदारों ने जनहित में जमींदारी प्रथा को ही समाप्त कर डाला । सब जमींदारों ने मिलकर अपने अधिकारों के समर्पण की प्रतिज्ञा करते हुए लिखा----- " हम और हमारे पूर्वजों ने चिरकाल तक जमींदारी की आमदनी के सुख भोगे हैं परंतु अब देश और जाति की उन्नति के लिये हम अपने सब सत्वों का त्याग करते हैं । वह सब राष्ट्र के चरणों में समर्पित है, उसे राष्ट्रहित में जिस प्रकार भी प्रयोग किया जा सके करें । '
नवयुवकों के लिए उन्नतिशील शिक्षा की व्यवस्था की जिससे जापानी युवक विद्दासंपन्न होने के साथ-साथ स्वावलंबी भी बन सकें । उन्होंने जापान को एक शक्तिशाली, संपन्न और समृद्ध राष्ट्र के रूप में विकसित किया ।
29 जुलाई 1912 को जापान के उन्नायक इस महान सम्राट का देहान्त हो गया । जिस समय वे मृत्युशय्या पर अंतिम साँसे ले रहे थे-- राजभवन के चारों ओर हजारों नागरिक ईश्वर से अपने बदले में अपने सम्राट का जीवन मांग रहे थे । राजसिंहासन पर ही नहीं लोगों के ह्रदय पर भी आसीन होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा ।
विशव के इतिहास में पहली बार जमींदारों ने जनहित में जमींदारी प्रथा को ही समाप्त कर डाला । सब जमींदारों ने मिलकर अपने अधिकारों के समर्पण की प्रतिज्ञा करते हुए लिखा----- " हम और हमारे पूर्वजों ने चिरकाल तक जमींदारी की आमदनी के सुख भोगे हैं परंतु अब देश और जाति की उन्नति के लिये हम अपने सब सत्वों का त्याग करते हैं । वह सब राष्ट्र के चरणों में समर्पित है, उसे राष्ट्रहित में जिस प्रकार भी प्रयोग किया जा सके करें । '
नवयुवकों के लिए उन्नतिशील शिक्षा की व्यवस्था की जिससे जापानी युवक विद्दासंपन्न होने के साथ-साथ स्वावलंबी भी बन सकें । उन्होंने जापान को एक शक्तिशाली, संपन्न और समृद्ध राष्ट्र के रूप में विकसित किया ।
29 जुलाई 1912 को जापान के उन्नायक इस महान सम्राट का देहान्त हो गया । जिस समय वे मृत्युशय्या पर अंतिम साँसे ले रहे थे-- राजभवन के चारों ओर हजारों नागरिक ईश्वर से अपने बदले में अपने सम्राट का जीवन मांग रहे थे । राजसिंहासन पर ही नहीं लोगों के ह्रदय पर भी आसीन होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा ।
 
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