महाभारत के विभिन्न प्रसंग मात्र कहने और सुनने के लिए नहीं है l महर्षि उन प्रसंगों के माध्यम प्रत्येक युग की परिस्थितियों के अनुरूप संसार को कुछ सिखाना चाहते हैं l इस काल की बात हम करें तो यह स्थिति लगभग सम्पूर्ण संसार में ही है लोग धन , पद , प्रतिष्ठा और अपने विभिन्न स्वार्थ , कामनाओं और वासना के लिए बड़ी ख़ुशी से ऐसे लोगों का साथ देते हैं जो अन्यायी हैं , विभिन्न अपराधों में , पापकर्म में लिप्त हैं l यह स्थिति परिवार में , संस्थाओं में और हर छोटे -बड़े स्तर पर है l देखने पर तो ऐसा लगता है कि गलत लोगों का साथ देने पर भी सब सुख -वैभव है लेकिन इसके दीर्घकाल में परिणाम कैसे होते हैं , यह महाभारत के इस प्रसंग से स्पष्ट है ----- महाभारत का सबसे आकर्षक व्यक्तित्व --'कर्ण ' जो सूत पुत्र के नाम से जाना जाता था , उसकी वीरता देखकर दुर्योधन ने उसे अंगदेश का राजा बना दिया l इस उपकार की वजह से दुर्योधन और कर्ण घनिष्ठ मित्र बन गए और कर्ण ने अपनी आखिरी सांस तक मित्र धर्म निभाया l दुर्योधन अत्याचारी व अन्यायी था , बिना वजह पांडवों के विरुद्ध षड्यंत्र कर उन्हें हर तरह से उत्पीड़ित करता था l ऐसे दुर्योधन का साथ देकर कर्ण अंगदेश का राजा तो बन गया , लेकिन उसका स्वयं का जीवन धीरे -धीरे खोखला होता गया l अपने गुरु का श्राप उसे मिला कि जब उसे जरुरत होगी तो वह यह विद्या भूल जायेगा l फिर एक रात्रि को स्वप्न में स्वयं सूर्यदेव ने उससे कहा कि देवराज इंद्र तुम्हारा कवच -कुंडल मांगने आएंगे , तुम अपने कवच -कुंडल नहीं देना , इनसे तुम्हारा जीवन सुरक्षित है l लेकिन कर्ण ने उनकी बात नहीं मानी और अपने कवच -कुंडल इंद्र को दे दिए l इंद्र ने उससे प्रसन्न होकर उसे एक अमोघ शक्ति प्रदान की , जिसे कर्ण ने अर्जुन को युद्ध में पराजित करने के लिए सुरक्षित रखा था लेकिन वह शक्ति भी भीम के पुत्र घटोत्कच का वध करने में चली गई l अत्याचारी , अन्यायी का साथ देने से वह राजा तो था लेकिन संयोग ऐसे बनते जा रहे थे कि ईश्वर प्रदत्त उसकी शक्तियां उससे दूर होती जा रहीं थीं l अंत में उसे सारथि भी शल्य जैसा मिला जो निरंतर अपनी बातों से उसके मनोबल को कम कर रहे थे l कहीं न कहीं कर्ण के मन में भी राजसुख भोगने का लालच था l जब दुर्योधन ने पांडवों को लाक्षा गृह में जीवित जलाने का षड्यंत्र रचा , फिर द्रोपदी को भरी सभा में अपमानित किया तब कर्ण चाहता तो कह सकता था कि मित्र ! अपना अंगदेश वापस ले लो , ऐसे अधर्म और अत्याचार का साथ हम नहीं दे सकते या वह अपने विभिन्न तर्कों से दुर्योधन को समझाने का प्रयास भी कर सकता था l यदि वह ऐसा करता तो कहानी कुछ और होती l महर्षि ने इस प्रसंग के माध्यम से संसार को यही समझाया कि अत्याचारी अन्यायी का साथ देना या अनीति और अन्याय को देखकर मौन रहना ये ऐसे अपराध हैं कि व्यक्ति ऐसा कर के अपने जीवन में ईश्वर से मिली जो विभूतियाँ हैं उन्हें धीरे -धीरे खोता जाता है और जीवन में ऐसा अभाव आ जाता है जिनकी भरपाई उस धन -संपदा से नहीं हो सकती l अनीति से प्राप्त सुख में व्यक्ति इतना डूब जाता है कि जब होश आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है , वापस लौटना संभव नहीं होता l जैसे कर्ण को अंत में मालूम हुआ कि वह तो सूर्य पुत्र है , महारानी कुंती उसकी माँ है लेकिन अब बहुत देर हो गई थी , अनीति और अत्याचार के दलदल से उसका निकलना संभव नहीं था l लालच , स्वार्थ ----ऐसे दुर्गुण हैं जिनके वश में होकर व्यक्ति क्षणिक सुखों के लिए स्वयं को ही बेच देता है , एक प्रकार की गुलामी स्वीकार कर लेता है l
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