25 January 2013

निन्दक नियरै राखिए आँगन कुटी छबाय ।बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुभाय ।मनुष्य अपनी प्रशंसा ही सुनना पसंद करता है निन्दा या आलोचना से बचना चाहता है किन्तु यदि निन्दा आलोचना को सहज और सकारात्मक भाव से स्वीकार किया जाये तो व्यक्ति को अपना स्वयं का सुधार करने के लिए भारी मदद मिलती है ।अपने में कौन सी कमियां हैं ,कमजोरियां हैं ,क्या दोष है ?इनका स्वयं पता नहीं चलता ।अपने व्यवहार की परख दूसरों के द्वारा की गई आलोचना और निन्दा के प्रकाश में भली -भांति की जा सकती है ।निन्दा अपने प्रकट -अप्रकट दोषों की ओर इंगित करती है तथा उन्हें सुधारने की प्रेरणा देती है ।इसके लिए चाहिये वह द्रष्टि जो निन्दा के प्रकाश में अपने दुर्गुणों -दोषों को ढूंढ़ सके और चाहिये वह सहिष्णुता जो निन्दा आलोचना को सह सके ।

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