29 April 2013

HUMANITY

'उस परिमित और संकुचित स्वार्थ को त्याग देना,जो सम्पूर्ण वस्तुओं को अपने ही लाभ के लिये चाहता है | सच्चा स्वार्थ परमार्थ में ही निहित है | स्वार्थ इनसान को संवेदनहीन कर देता है | आज जीवन इतना यांत्रिकीय हुआ है कि सेवा ,सहयोग ,भाव - संवेदना से व्यक्ति का नाता ही टूट गया है | 'स्व 'कीपरिधि में सिमटा लोगों का जीवन  संवेदनहीन हो गया है | इस संकीर्ण एवं क्षुद्र दायरे को तोड़कर ही जीवन की व्यापकता का आनंद उठाया जा सकता है |
स्वार्थ हमें बांधता है जबकि परमार्थ ,सेवा ,त्याग ,सहयोग ,सहायता आदि हमें असीम बनाते हैं ,जीवन का सही स्वरुप दिखाते हैं | जीवन भावना ,संवेदना ,करुणा ,सेवा ,व्यवहार एवं पुरुषार्थ का अदभुत समुच्चय है | इन दिव्य विशेषताओं को विकसित करने के लिये आवश्यक है कि हम अपने संकीर्ण स्वार्थ की मोटी दीवार को ढहा दें और अंतरात्मा की कोठरी के वातायनों को खोल दें ,त्याग ,सेवा ,सहायता रूपी प्रेरणाप्रद प्रकाश को अंदर  आने दें तथा इंसानियत की सुगंधित बयार से इसे महकने दें |

                     'भक्ति 'का अर्थ है -भावनाओं की पराकाष्ठा और परमात्मा एवं उसके असंख्य रूपों के प्रति प्रेम | यदि पीड़ित को देख अंतर में करुणा जाग उठे ,भूखे को देख अपना भोजन उसे देने की चाह मन में आये और भूले -बिसरों को देख उन्हें सन्मार्ग पर ले चलने की इच्छा हो ,तो ऐसे ह्रदय में भक्ति का संगीत बजते देर नहीं लगती | सच्चे भक्त की पहचान भगवान के चित्र के आगे ढोल -मंजीरा बजाने से नहीं ,बल्कि गए -गुजरों और दीन -दुखियों को उसी परम सत्ता का अंश मान कर ,उनकी सेवा करने से होती है | 

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