ईश्वरचंद्र विद्दासागर के बचपन की घटना है |उनके द्वार पर एक भिखारी आया , उसे याचना करते देख उनके ह्रदय में करुणा उमड़ी | उन्होंने माँ से कहा - " उस भिखारी के लिये कुछ दें दें | " माँ के पास उस समय कुछ न था सो उसने अपना कंगन उतार कर ईश्वरचंद्र के हाथ पर रख दिया और कहा -" जब तू बड़ा हो जाये तब दूसरा बनवा देना , अभी इसे बेच कर जरुरतमंद की सहायता कर |"
बड़े होने पर ईश्वरचंद्र अपनी पहली कमाई से माँ के लिये सोने का कंगन बनवा कर ले गये और बोले -" माँ ! आज मैंने बचपन का तेरा कर्ज उतार दिया " | माँ बोली --" बेटा ! मेरा कर्ज तो उस दिन उतर पायेगा , जिस दिन किसी और याचक के लिये मुझे ये कंगन दोबारा नहीं उतारने पड़ेंगे |" माँ की बात ईश्वरचंद्र के ह्रदय में घर कर गई | उन्होंने प्रण लिया कि वो अपना जीवन दीन-दुखियों की सेवा करने और उनके कष्ट हरने में व्यतीत करेंगे और उन्होंने वैसा ही जीवन जिया |
महापुरुषों के व्यक्तित्व एक दिन में तैयार नहीं होते , उनको गढ़ने के लिये वे कष्ट -कठिनाइयों के दौर से गुजरते हैं |
' विकास की अंतिम सीढ़ी भाव - संवेदना को मर्माहत कर देने वाली करुणा के विस्तार में है , इसी को आंतरिक उत्कृष्टता भी कहते हैं | '
बड़े होने पर ईश्वरचंद्र अपनी पहली कमाई से माँ के लिये सोने का कंगन बनवा कर ले गये और बोले -" माँ ! आज मैंने बचपन का तेरा कर्ज उतार दिया " | माँ बोली --" बेटा ! मेरा कर्ज तो उस दिन उतर पायेगा , जिस दिन किसी और याचक के लिये मुझे ये कंगन दोबारा नहीं उतारने पड़ेंगे |" माँ की बात ईश्वरचंद्र के ह्रदय में घर कर गई | उन्होंने प्रण लिया कि वो अपना जीवन दीन-दुखियों की सेवा करने और उनके कष्ट हरने में व्यतीत करेंगे और उन्होंने वैसा ही जीवन जिया |
महापुरुषों के व्यक्तित्व एक दिन में तैयार नहीं होते , उनको गढ़ने के लिये वे कष्ट -कठिनाइयों के दौर से गुजरते हैं |
' विकास की अंतिम सीढ़ी भाव - संवेदना को मर्माहत कर देने वाली करुणा के विस्तार में है , इसी को आंतरिक उत्कृष्टता भी कहते हैं | '
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