पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " कामना एक ऐसी धधकती आग है , जो कभी बुझती नहीं l नए - नए रूपों में मन में सदा प्रज्वलित रहती है l कामना की आग में मिट जाना विनाश है और इसको नियंत्रित कर लेना विवेक है तथा उसे बुझा देने का अपार दुस्साहस करना विजय है l " कामनाओं की बाधा है ---- क्रोध l क्रोध की अग्नि में सब कुछ नष्ट हो जाता है l क्रोध से ही विनाश और संघर्ष उत्पन्न होता है l कामना के संसार में कहीं भी तृप्ति नहीं है l जितना है, उससे अधिक की चाहत बनी रहती है l गांव का एक सरपंच चाहता है वो विधायक बन जाये , विधायक बनने के बाद चाहेगा कि वह मंत्री बन जाये , फिर मनमाना विभाग मिल जाये , यह सब मिल गया तो भी संतोष नहीं , अब चाहेंगे कि राष्ट्र प्रमुख बन जाये ,--- फिर अन्य देश भी उसकी हुकूमत मान लें l जब यह कामना भी पूरी हो जाती है तो व्यक्ति अपने को भगवान समझने लगता है l बस ! यही उसकी सबसे बड़ी भूल है l भगवान कृष्ण अर्जुन के सारथि बने , महाभारत हुआ तो यहाँ विनाश के साथ सृजन था , अधर्म और अन्याय का अंत और धर्म की स्थापना l लेकिन मनुष्य की कामना तृप्ति में जब बाधा से क्रोध उत्पन्न होता है , इससे उसका विवेक नष्ट हो जाता है , मतिभ्रम हो जाती है और परिणाम --विनाश ही विनाश l परिवार , समाज और राष्ट्र ऐसे ही क्रोध और मति भ्रम के कारण आपस में ही लड़ -लड़कर टूट जाते हैं , नष्ट हो जाते हैं l कितनी ही सभ्यताएं मनुष्य की विवेकहीनता के कारण काल के गाल में समां गईं l आज संसार को सद्बुद्धि की जरुरत है l सद्बुद्धि के अभाव में ही व्यक्ति आपस में लड़ कर , दंगे - फसाद , युद्ध कर , प्रकृति , पर्यावरण सबको नष्ट कर के ही अपने आप पर गर्व महसूस करता करता है
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