21 February 2013

सत्कर्म ही अमर रहता है | धर्म किये धन न घटे |
गुजरात और महाराष्ट्र में मुगल काल के अंतिम समय में भीषण अकाल पड़ा | सड़क और रास्ते मुर्दों के शरीरों से बंद हो गये थे | जनता अन्न के एक -एक दाने के लिये तरसने लगी थी | ऐसे में वीरजी सेठ ने अपनी तमाम पूंजी भूख से तड़पकर मरते हुए लोगों को जीवित रखने के प्रयत्न में अन्न दान करने में लगा दी | धन की सारी तिजोरियां खाली हो गईं ,परन्तु उन्हें परम संतोष था कि धन का व्यय सत्कर्म में हुआ है | अकाल बीत चुका ,वर्षा हुई ,लोग -बाग खेती करने लगे | एक दिन सुबह के समय सेठजी प्रभु के ध्यान में मग्न थे | किसी ने उनका नाम लेकर पुकारा | सेठजी ने दरवाजा खोला तो सामने एक बनजारा गठरी लिये खड़ा था | बनजारे ने कहा -"सेठजी मुझे लंबी यात्रा पर जाना है ,मेरी ये गठरियां आप रख लीजिये ,जब मैं वापस आऊंगा तब इन्हें ले लूंगा ।"सेठ ने कहा ,"बनजारे भाई ,मैं गरीब हो चुका हूं | मेरे यहां पर माल रखना ठीक नहीं है | "किन्तु बनजारे ने बात अनसुनी कर दी और गठरियां रखकर चुपचाप चला गया | सेठजी धर्म संकट में पड़ गये | गठरियां गिनवाते हुए उनकी नजर एक गठरी पर चिपकी हुई एक चिठ्ठी पर पड़ी उसमे लिखा था -"सेठजी !आपने धन का मोह छोड़कर अपनी सारी पूंजी अन्न दान में लगा दी | मैं बहुत खुश हूं | मैं वही हूं जिसका तुम ध्यान कर रहे थे और ये अपार धन -सम्पति से भरी गठरियां ,सब तुम्हारी हैं | ,इन्हें स्वीकार करना | बनजारे का पत्र पढ़कर सेठ की आँखों से आँसू बहने लगे | वे बनजारे के पीछे भागे | अब वह कहां मिलता किन्तु भगवान तो अपना काम कर चुके थे |

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