12 April 2022

WISDOM

 पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ---- ' आज  कितना  ज्यादा  दिखावा  धर्म क्षेत्र  में  दिखाई  दे  रहा  है  l  लगता  है  भगवान  के  भक्तों  की  संख्या  अनंत  गुनी  है  , सभी  उन्हें  पाने  का  प्रयास  कर  रहे  हैं  l  धार्मिक  स्थलों  पर  जाने  वालों  की  संख्या , कथा  सुनने - सुनाने  वालों  की  संख्या   और  भावावेश  में  आकर  नाच  उठने  वाले  साधकों  की  संख्या   अगणित  है  l  पर  क्या  वे  वास्तव  में  प्रभु  के  स्वरुप  को  जानते  हैं   ? '  श्रीमद्भगवद्गीता  में  भगवान  कहते  हैं --- दिखावा  अलग  बात  है , पर  प्रभु  को   जानना  दूसरी  बात  है  l  जिसने  भगवान  को  जान  लिया  उसने  दुनिया  का  सारा  दरद   जान  लिया  l '  आचार्य श्री  लिखते  हैं ---- ' जीवन  का  सत्य  बाहरी  आवरण  में  नहीं  है  l   फिर  बाहरी  परिवर्तन  से , वेश  और  व्यवहार  बदलने  से  क्या  होगा  ?  '------ एक  कथा  है ------  एक  शहर  में  एक  दिन , एक  ही  समय  दो  मौतें  हुईं -- एक  संन्यासी  थे  और  एक  नर्तकी  l   जैसे  ही  उनकी  मृत्यु  हुई  ,  ऊपर  से  दूत  उनको  लेने  के  लिए  आए  l  एक  आश्चर्य  यह  था  कि  वे  दूत  नर्तकी  को  स्वर्ग  की  ओर   ले  चले  और  संन्यासी   को  घसीटते  हुए  नरक  की  ओर  l   संन्यासी  से  सहन  न  हुआ  , वह  दूतों  से  बोला ---- ' अरे  भाई  ! तुम  अपनी  भूल  सुधारो ,  नर्तकी  को  स्वर्ग  ले  जा  रहे  हो  और  मुझे  नरक l म यह  अन्याय  और  अंधेरगर्दी  है   l  '  दूतों  ने  कहा --- नहीं , ऐसी  बात  नहीं  है l  तुम  थोड़ा  सा  नीचे   देखो  l ' संन्यासी  ने  धरती  की ओर   देखा   , तो  वहां  उसके  मृत  शरीर  को  फूलों  से  सजाया   गया  था  , बहुत  भीड़  थी  , लोग  रामनाम  गाते   हुए  उसे  ले  जा  रहे  थे , चन्दन  की  चिता    तैयार  थी  l  दूसरी  ओर  नर्तकी  की  लाश  पड़ी  थी  ,  अब  उसे  पूछने  वाला  कोई  नहीं  था  l  '  यह  देख  संन्यासी  ने  कहा ---' तुमसे  ज्यादा  समझदार  तो  धरती  के  लोग  हैं  जो  मुझ  पर  न्याय  कर  रहे  हैं   l  ' दूत  हंसने  लगे  और  बोले --- ' वे  बेचारे  तो  केवल  वही  जानते  हैं  , जो  बाहर  था  ,   इन  लोगों  ने  वही  जाना  जो  तुम  दिखाते   रहे  , जो  तुमने  लोगों  के  सामने  किया   परन्तु  जो  तुम  सोचते  रहे  , मन  की  दीवारों  के  भीतर  करते  रहे    उसे  ये  सब  जान  नहीं   पाए    l   तुम्हारा  मन  सदा  नर्तकी  में  अनुरक्त  रहा , मन  भोग  और  वासना  में  डूबा  था  l  मृत्यु  की   घड़ी  में  भी  तुम्हारे  चित्त   में  अहंकार  था , वासना  थी   जबकि  नर्तकी  निरंतर  यही  सोचती  रही  कि   इन  संन्यासी  महाराज  का  जीवन  कितना  आनंदपूर्ण  है  l  रात  को  तुम  जब  भजन  गाते   थे   तब  वह  बेचारी  विकल  होकर  रोती    थी   , वह  अपने  पापों  की  पीड़ा  से   विगलित  होती  जाती  थी  l  मृत्यु  की  घड़ी  में  उसके  चित्त   में  न  अहंकार  था ,  न  वासना  थी  l   उसका  चित्त  तो  परमात्मा  के  प्रकाश , प्रेम  एवं  प्रार्थना  से  परिपूर्ण  था  l  "    अध्यात्म  अंत:करण   में  परिवर्तन  है ,  आंतरिक  जीवन  का ,    चित्त  का  रूपांतरण  है  l 

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