स्वामी विवेकानंद अपने शिष्यों के साथ पैदल भ्रमण को निकले l निर्माणाधीन मंदिर के पास उनकी द्रष्टि तीन मजदूरों पर पड़ी l उन्होंने उत्सुकतापूर्वक पहले मजदूर से पूछा ---- " क्यों भाई , क्या कर रहे हो ? " उसने उत्तर दिया ---- " गधे की तरह जुटे हुए हैं , देख नहीं रहे हो l दिन भर काम करने पर थोड़ा -बहुत मिल जाता है , पर इतने के लिए ठेकेदार मानो जान निकाल लेता है l " यही प्रश्न दूसरे से करने पर वह बोला ---- " मंदिर बन रहा है , हमारी तो किस्मत में यही था कि मजदूरी करें , सो कर रहे हैं l " तीसरे ने भाव भरे ह्रदय से उत्तर दिया ----- " भगवान का घर बन रहा है l मुझे तो प्रसन्नता है कि मेरी पसीने की कुछ बूंदे भी इसमें लग रही हैं l जो भी मुझे मिलता है , उसी में मुझे ख़ुशी है l गुजारा भी चल जाता है और प्रभु का काम भी हुआ जा रहा है l " स्वामी जी ने शिष्यों से कहा --- " " यह अंतर है तीनों के काम करने के ढंग में l मंदिर तीनों बना बना रहे हैं लेकिन एक गधे की तरह मज़बूरी में , दूसरा यंत्रवत भाग्य के नाम पर दुहाई देता हुआ और तीसरा समर्पण भाव से काम में जुटा हुआ है l यही अंतर इनके काम की गुणवत्ता में भी देखा जा सकता है l क्या कार्य किया जा रहा है , यह महत्वपूर्ण नहीं है , उसे किस उदेश्य से , किस भावना से किया जा रहा है , यह मायने रखता है l "
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