श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि मनुष्य कर्म करने को स्वतंत्र है लेकिन उस कर्म का परिणाम कब और कैसे मिलेगा यह काल निश्चित करता है l कलियुग में मनुष्य बहुत बुद्धिमान हो गया है , वह अपनी बुद्धि लगाकर इस विधान में थोड़ी बहुत हेराफेरी कर ही लेता है l इसे इस तरह समझ सकते हैं ---- कहते हैं प्रत्येक मनुष्य के दो घड़े --एक पाप का और एक पुण्य का चित्रगुप्त जी महाराज के पास रखे रहते हैं l जब कोई निरंतर पापकर्म करता रहता है तो उसका पाप का घड़ा भरता जाता है l यदि वह कुछ पुण्य कर्म भी करता है तो उन पुण्यों से उसके कुछ पाप कटते जाते हैं लेकिन यदि पुण्यों की गति बहुत धीमी है तो एक न एक दिन उसका पाप का घड़ा भर जाता है l जो बहुत होशियार हैं उन्हें बीमारी , अशांति , व्यापार में घाटा आदि अनेक संकेतों से इस बात का एहसास होने लगता है कि अब उनके पापों का फल मिलने का समय आ रहा है l ऐसे में वे बड़ी चतुराई से किसी पुण्यात्मा का , किसी साधु -संत का पल्ला पकड़ लेते हैं l उनके चरण स्पर्श करना , आशीर्वाद लेना , उन्हें धन , यश , प्रतिष्ठा का प्रलोभन देकर उनसे आशीर्वाद के रूप में उनके संचित पुण्य भी ले लेते हैं l सुख -वैभव , यश की चाह किसे नहीं होती , निरंतर चरण स्पर्श कराने और आशीर्वाद देते रहने से उनकी ऊर्जा पुण्य के रूप में उस व्यक्ति की ओर ट्रान्सफर होती जाती है l इसका परिणाम यह होता है कि उस पापी के पुण्य का घड़ा फिर से भरने लगता है जिससे उनके पाप कटने लगते हैं और साधु महाराज का पुण्य का घड़ा खाली होने लगता है l अब या तो वे महाराज तेजी से पुण्य कार्य करें लेकिन सुख -भोग और यश मिल जाने से अब पुण्य कर्म करना संभव नहीं हो पाता l पुण्य का घड़ा रिक्त होते ही उन महाराज का पतन शुरू होने लगता है , कभी एक वक्त था जब लोग सिर , आँखों पर बैठाए रखते थे लेकिन अब -------- l केवल साधु -संत ही नहीं सामान्य मनुष्यों को भी प्रतिदिन कुछ - कुछ पुण्य अवश्य करते रहना चाहिए ताकि जाने -अनजाने हम से जो पाप कर्म हो जाते हैं , उनसे इस पाप -पुण्य का संतुलन बना रहे l पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते हैं ---- हमें पुण्य का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहिए l पुण्यों की संचित पूंजी ही हमारी बड़ी - बड़ी मुसीबतों से रक्षा करती है l
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