एक जल पूरित नदी कल -कल करती हुई आनंद और उल्लास के साथ बही जा रही थी l उसके किनारे बड़े -बड़े सुन्दर नगर , उपनगर बसे हुए थे l खेती और दैनिक जीवन में इसके जल का लोग उपयोग करते करते थे l नदी के जल से विद्युत उत्पादन होता था , इस बिजली से बड़े -बड़े उद्योग लाभान्वित होते थे l नदी के माध्यम से व्यापर भी होता था , असंख्य लोगों को रोजगार मिला था l नदी अपने गंतव्य की ओर बहती हुई जा रही थी , तब उसके निकट एक छोटी तलैया , जिसका पानी प्रवाह हीन होने के कारण दुर्गन्ध दे रहा था , उसने नदी से कहा ---- " बहिन बताओ , अपने इस दिन -रात के बहते हुए जीवन में आखिर तुम्हे किस बात का अनुभव होता है , जो तुम निरंतर कल -कल करती हुई किलोले क्रिया करती हो ? मुझे क्यों नहीं देखतीं , जो एक जगह ठहरकर अपने जीवन को प्रगति और प्रवाह से दूर कर के , स्थिर होकर यहाँ पड़ी -पड़ी आराम के साथ अपने दिन गुजार रही हूँ l " नदी ने तलैया से कहा ---- " प्रगति और प्रवाह का पथ अपनाने से ही मेरा जल स्वच्छ और निर्मल बना हुआ है और इसीलिए मेरी हर बूंद का सदुपयोग किया जाता है l प्रगति और प्रवाहहीन होने के कारण ही तुम गंदगी का आगार बनी हुई हो l औरों के उपयोग में न आने वाले तुम्हारे जीवन का इस दुनिया में अधिक अस्तित्व नहीं है l "
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