पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " जहाँ राह गलत होती है वहां जीवन के सार्थक होने का प्रश्न ही नहीं उठता l सिकंदर विश्व विजेता बनना चाहता था l इसके लिए उसने हजारों आदमियों का रक्त बहाया , कितनी ही माताओं की गोद सूनी कर दी और कितने ही बच्चों को अनाथ कर दिया l विश्व -विजय करने के पागलपन में न तो स्वयं कभी चैन से बैठा और न अपने सैनिकों को चैन से बैठने दिया l " अहंकार ने उसकी मति भ्रष्ट कर दी l वह इस सत्य को न समझ सका कि नेक कर्म कर के , लोगों का दिल जीतकर भी विश्व विजेता बना जा सकता है l अहंकारी व्यक्तियों को ईश्वर समय -समय पर सबक सिखाते हैं , उनका सामना कभी इतने सामान्य व्यक्ति से हो जाता है , जिसके सामने वे स्वयं को बौना महसूस करते हैं , लेकिन फिर भी अहंकार सिर पर ऐसा चढ़ा है कि जाता ही नहीं l ------------------- शहरों , कस्बों और गांवों को रौंदता हुआ सिकंदर का काफिला आगे बढ़ता जा रहा था l रास्ते में एक गाँव पड़ा , सिकंदर के भोजन का समय हो गया था , एक दरवाजा खटखटाया , बूढ़ी महिला निकली l उसे देख सिकंदर चीख कर बोला --- " मैं विश्व विजयी सिकंदर हूँ , मुझे भूख लगी है , जा जल्दी से मेरे लिए कुछ खाने को ला l " महिला अन्दर गई और कुछ देर बाद एक थाली को कपड़े से ढककर लौटी l सिकंदर ने कपड़ा उठाकर देखा तो उसमें सोने के जेवर रखे थे l सिकंदर चिल्लाया ---- " ओ बेवकूफ औरत ! मैंने खाने की रोटियां मांगी और तू ये जेवर ले आई l इन्हें खाकर मैं अपना पेट भरूँगा क्या ? " महिला बोली ---- " बेवकूफ मैं नहीं तू है सिकंदर ! यदि तेरा पेट रोटियों से भर जाता तो तू अपने देश में ही सुखी नहीं रहता क्या ? रोटियां तो वहां भी बनती होंगी l तेरी भूख जिससे मिटती नजर आती है , मैं वही तेरे लिए रखकर लाई हूँ l " सिकंदर के पास जवाब में कोई शब्द नहीं थे , वह विक्षिप्त सा हो गया l जब उसका अंतिम समय आया , तब उसे यह घटना याद आ रही थी , उसने अपने सेनापति को बुलाकर कहा --- " देखो मित्र ! जब मेरी अर्थी बनाई जाये तो मेरे दोनों हाथ अर्थी से बाहर निकाल देना ताकि दुनिया वाले यह जान सकें कि विश्व विजेता सिकंदर इस दुनिया से खाली हाथ जा रहा है l
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