पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- "जो तृष्णा और सुख की लालसा से अपने आपको जितना भरता जाता है , वह उतना ही अपने अहंकार को तुष्ट और पुष्ट करता है l संसार में , दुनियादारी में व्यक्ति स्वामित्व की चाहत रखता है , लेकिन यह चाहत स्वयं का स्वामी बनने की नहीं होती l यह चाहत होती है धन , साधन , भवन -संपत्ति का स्वामी बनने की l संसार में शक्ति के मायने अहंता के पोषण के सिवाय और कुछ नहीं है और अहंता का पोषण अशांति से ज्यादा और कुछ भी नहीं दे सकता l धन , दुकान , भूमि , भवन , संपत्ति का मालिक बनकर भी मनुष्य केवल गुलाम बनता है l इस सत्य को समझाने वाली सूफी संत फरीद के जीवन की एक घटना है ---- बाबा फरीद अपने शिष्यों के साथ एक गाँव से गुजर रहे थे l वहीँ रास्ते में एक आदमी अपनी गाय को रस्सी से बांधे लिए जा रहा था l फरीद ने उस आदमी से थोड़ी देर रुकने की प्रार्थना की l उनकी प्रार्थना पर वह रुक गया l अब बाबा फरीद ने अपने शिष्यों से पूछा ---- " इन दोनों में मालिक कौन है ----गाय या आदमी ? " शिष्यों ने कहा ---- " यह भी कोई बात हुई , जाहिर है कि आदमी गाय का मालिक है l " फरीद ने फिर कहा --- " यदि गाय के गले की रस्सी काट दी जाए तो कौन किसके पीछे दौड़ेगा ---- गाय आदमी के पीछे या फिर आदमी गाय के पीछे l " शिष्यों ने कहा --- " जाहिर है आदमी गाय के पीछे भागेगा l " तो फिर फरीद ने शिष्यों से कहा ----- " तो फिर मालिक कौन हुआ ? " फरीद ने शिष्यों से कहा ---- ' तो फिर मालिक कौन हुआ ? " फरीद ने अपने शिष्यों से कहा ----" यह जो रस्सी तुम्हे दिखाई पड़ती है गाय के गले में , यह दरअसल आदमी के गले में है l हर संपत्ति हमारे गले का फंदा बन जाती है l " आज मनुष्य सुख साधनों के पीछे भाग रहा है , इस अंधी दौड़ में वह स्वयं को ही भूल गया है l
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