सारी क्षमताएं , सारी शक्तियां और सारी संभावनाएं भगवान ने इस मानव शरीर में भर दी हैं l उनके उपयोग की स्थिति में हम हैं नहीं इसलिए लगता है कि हम असहाय और दीन - दुःखी हैं l उन सामर्थ्यों की एक झलक कभी हर एक के जीवन में देखने को मिलती है l जब जीवन खतरे में लगता है तब मनुष्य न जाने क्या से क्या कर गुजरता है l '
एन्टन चेखव के साथ भी यही हुआ ---- बचपन में वे मंद - बुद्धि और अविकसित दिमाग के थे , पढ़ने - लिखने में उनका मन नहीं लगता था l स्कूल प्रबंधकों ने उन्हें अपने स्कूल में पढ़ाने से मना कर दिया l तब उन्हें दरजी की दुकान पर रखा गया , वहां भी चेखव महीनों तक प्रयत्न करते रहे लेकिन एक पायजामा तक नहीं सी सके l नौ - दस वर्ष की आयु तक उनकी यही स्थिति रही l जीवन के यथार्थ धरातल पर जब उन्हें उतरना पड़ा तो परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए उनकी बौद्धिक क्षमता न जाने कहाँ से जाग गई l
24 वर्ष की अवस्था में उनका पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ l इस स्थिति तक पहुँचते - पहुँचते उन्होंने ग्रीक , लैटिन , जर्मन और फ्रेंच भाषाएँ सीख लीं , साथ ही डाक्टरी का भी अध्ययन किया l जब उनसे किसी ने पूछा कि इतने कम समय में आप अपना इतना विकास कैसे कर सके तो उनका एक ही उत्तर होता ---- लगन और निष्ठा के बल पर कुछ भी अप्राप्य नहीं है l
काम के प्रति उनके मन में ऐसी लगन जागी कि वे जब लिखने बैठते तो तब तक लिखते जब तक कि उँगलियाँ दर्द के कारण लिखने से इनकार न कर दें l उस स्थिति में भी वे थक कर सोते नहीं पढ़ने लगते थे l धैर्य इतना था कि जब प्रकाशक रचनाएँ वापस कर देते तो बिना खिन्न हुए वे उसे सुधार कर फिर से लिखने लगते l
एन्टन चेखव के साथ भी यही हुआ ---- बचपन में वे मंद - बुद्धि और अविकसित दिमाग के थे , पढ़ने - लिखने में उनका मन नहीं लगता था l स्कूल प्रबंधकों ने उन्हें अपने स्कूल में पढ़ाने से मना कर दिया l तब उन्हें दरजी की दुकान पर रखा गया , वहां भी चेखव महीनों तक प्रयत्न करते रहे लेकिन एक पायजामा तक नहीं सी सके l नौ - दस वर्ष की आयु तक उनकी यही स्थिति रही l जीवन के यथार्थ धरातल पर जब उन्हें उतरना पड़ा तो परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए उनकी बौद्धिक क्षमता न जाने कहाँ से जाग गई l
24 वर्ष की अवस्था में उनका पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ l इस स्थिति तक पहुँचते - पहुँचते उन्होंने ग्रीक , लैटिन , जर्मन और फ्रेंच भाषाएँ सीख लीं , साथ ही डाक्टरी का भी अध्ययन किया l जब उनसे किसी ने पूछा कि इतने कम समय में आप अपना इतना विकास कैसे कर सके तो उनका एक ही उत्तर होता ---- लगन और निष्ठा के बल पर कुछ भी अप्राप्य नहीं है l
काम के प्रति उनके मन में ऐसी लगन जागी कि वे जब लिखने बैठते तो तब तक लिखते जब तक कि उँगलियाँ दर्द के कारण लिखने से इनकार न कर दें l उस स्थिति में भी वे थक कर सोते नहीं पढ़ने लगते थे l धैर्य इतना था कि जब प्रकाशक रचनाएँ वापस कर देते तो बिना खिन्न हुए वे उसे सुधार कर फिर से लिखने लगते l
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