बहुत वर्ष पहले एक मूर्तिकार मूर्तियां बनाता और उन्हें बेचकर गुजारा करता l उसकी मूर्ति प्राय: एक रूपये में बिकती l लड़का बड़ा हुआ तो मूर्तिकार ने उसी धंधे में उसे लगाया l लड़का कुशाग्र बुद्धि था , जल्दी ही अच्छी मूर्तियां बनाने लगा और वे बाप की अपेक्षा दूने दाम में यानि दो रूपये में बिकने लगीं l इतने पर भी बाप ने अपना नित्य कर्म जारी रखा l वह लड़के की मूर्तियों को बड़ी बारीकी से देखता और उनमे जो नुक्स होता उसे सुधारने की सलाह देता l लड़के के अहंकार को चोट लगी , उसकी मूर्तियां दूने दाम में बिकने लगीं थीं l तब भी प्रशंसा मिलने के स्थान पर उसके कार्य में पिता द्वारा मीन मेख ही निकाली जाती थी l अपने को दुःख लगने की बात उसने अपने पिता पर प्रकट की और कहा मेरी मूर्तियां इतनी सुन्दर हैं , आपकी मूर्तियों से ज्यादा दाम में बिकती हैं , फिर भी आप कमी निकालते हैं , मुझे बहुत दुःख होता है l
यह सुनकर पिता को बहुत दुःख हुआ ,बोला --- ' बेटे ! तेरी प्रगति अब रुक गई l दो रूपये से अधिक मूल्य की मूर्ति अब न बना सकेगा l यह भूल मुझसे बचपन में हुई थी और एक रूपये की मूर्ति बनाने के बाद और अधिक प्रगति न कर सका l वही भूल अब तुम कर रहे हो l लड़के ने अपनी भूल समझी l पिता की सीख मानकर वह पहले से अच्छी मूर्तियां बनाने लगा l गलतियों को स्वीकार करना और उन्हें सुधारना , यही अनवरत प्रगति का राह मार्ग है
यह सुनकर पिता को बहुत दुःख हुआ ,बोला --- ' बेटे ! तेरी प्रगति अब रुक गई l दो रूपये से अधिक मूल्य की मूर्ति अब न बना सकेगा l यह भूल मुझसे बचपन में हुई थी और एक रूपये की मूर्ति बनाने के बाद और अधिक प्रगति न कर सका l वही भूल अब तुम कर रहे हो l लड़के ने अपनी भूल समझी l पिता की सीख मानकर वह पहले से अच्छी मूर्तियां बनाने लगा l गलतियों को स्वीकार करना और उन्हें सुधारना , यही अनवरत प्रगति का राह मार्ग है
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