प्राचीन काल में जो राजा बहुत वीर , शक्तिशाली और प्रजापालक होते थे , वे संसार के विभिन्न राजाओं को अपने आधीन कर ' चक्रवर्ती सम्राट ' कहलाते थे l विभिन्न देशों व क्षेत्रों में वहां के कार्य संचालन के लिए राजा तो होते थे लेकिन वे ' चक्रवर्ती सम्राट ' के ध्वज तले ही काम करते थे , उन्ही के आदेशानुसार , उन्ही की नीतियों के अनुसार राज - काज होता था l ये सम्राट प्रजापालक थे , इनका उद्देश्य संसार में सुख - शांति स्थापित करना और कला , साहित्य आदि हर क्षेत्र में विकास करना था l ऐसे प्रजापालक सम्राटों का युग इतिहास में ' स्वर्ण युग ' कहलाता है l
धीरे - धीरे वक्त बदला , धन - सम्पदा को बहुत अधिक महत्व दिया जाने लगा l फिर शासन व्यवस्था चाहे जो हो , जिसके पास भी शक्ति हो , जनता का शोषण कर धन संग्रह करना जीवन का प्रमुख लक्ष्य हो गया l ' चक्रवर्ती सम्राट' के भी मायने बदल गए l अब वीरता और प्रशासनिक कुशलता और प्रजापालक की जरुरत नहीं रह गई l जिसके पास धन है , पूंजी है वह व्यक्ति हो या संगठन संसार को अपने हिसाब से चला सकता है l वही चक्रवर्ती सम्राट है l तुलसीदास जी ने कहा भी है ----' समरथ को नहि दोष गुसाईं l '
धीरे - धीरे वक्त बदला , धन - सम्पदा को बहुत अधिक महत्व दिया जाने लगा l फिर शासन व्यवस्था चाहे जो हो , जिसके पास भी शक्ति हो , जनता का शोषण कर धन संग्रह करना जीवन का प्रमुख लक्ष्य हो गया l ' चक्रवर्ती सम्राट' के भी मायने बदल गए l अब वीरता और प्रशासनिक कुशलता और प्रजापालक की जरुरत नहीं रह गई l जिसके पास धन है , पूंजी है वह व्यक्ति हो या संगठन संसार को अपने हिसाब से चला सकता है l वही चक्रवर्ती सम्राट है l तुलसीदास जी ने कहा भी है ----' समरथ को नहि दोष गुसाईं l '
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