पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " परमात्मा न तो अपने हाथ से किसी को कुछ देता है और न छीनता है l वह इन दोनों के लिए मनुष्यों की आंतरिक प्रेरणा द्वारा परिस्थितियां उत्पन्न करा देता है , और आप तटस्थ भाव से मनुष्यों के उत्थान - पतन देखा करता है l " मनुष्य के जैसे संस्कार है , जैसी उसकी प्रवृति है , उसी के अनुरूप वह कर्म करता है , अपना मार्ग चुनता है और उसके कर्म का फल कब और क्या होगा यह काल निश्चित करता है l महाभारत युद्ध निश्चित हो गया , अर्जुन और दुर्योधन दोनों के सामने विकल्प था कि वे भगवान को चुनें या उनकी सेना को l दुर्योधन में अहंकार था , वह तो भगवान को भी अशुभ शब्द बोलता था , जब कृष्ण जी शांति दूत बन कर गए थे तब वह उनको बाँधने चला था l उसे अपनी शक्ति का घमंड था और वह शक्ति उसके किसी काम न आई l आज यदि संसार में शांति चाहिए तो स्वयं को शक्तिशाली समझने वालों को रामायण और महाभारत का अध्ययन कर उसमे जो तथ्य छुपा है उसे समझना चाहिए l रावण की नाभि में अमृत था अर्थात जिस शक्ति का उसे घमंड था वह नाभि में थी , उसी केंद्र में बाण लगने से विस्फोट हुआ और नामोनिशान मिट गया l हर असुर के साथ यही होता है , असुर अपनी शक्ति का दुरूपयोग करता है इसलिए उसकी शक्ति , उसको मिला हुआ वरदान ही उसके अंत का कारण बन जाता है l भस्मासुर को वरदान था कि जिसके सिर पर हाथ रखे वह भस्म हो जाये l उसकी बुद्धि ऐसी भ्रष्ट हुई कि उसने अपने ही सिर पर हाथ रख लिया और भस्म हो गया l
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