पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ------ " ध्वंस के संरजाम तो माचिस की एक छोटी सी तीली , आग की छोटी चिन्गारी भी कर सकती है l पर निर्माण एक झोंपड़े का भी करना हो तो ढेरों साधन सामग्री और श्रमशीलों की कुशलता , तत्परता चाहिए l मनुष्य खोखला , उन्मादी और इस स्तर तक अनाचारी हो गया है कि उसे नर -पशु तक नहीं कहा जा सकता ल मरघट में प्रेत पिशाच कोलाहल करते रहते हैं l डरना और डराना ही उनका प्रधान कार्य होता है l मनुष्यों में एक बड़ी संख्या आज ऐसे ही लोगों की दीख पड़ती है l भ्रष्ट चिंतन ही दुष्ट आचरण का कारण है l " विचारों का परिष्कार जरुरी है l "
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