पुराण की एक कथा है ----- एक बार विधाता ने जय -विजय को आदेश दिया कि धरती पर स्वर्ग का सच्चा अधिकारी कौन है , ढूंढकर बताओ l जय - विजय सम्पूर्ण धरती पर घूमते रहे , उन्होंने देखा लोग जहाँ -तहां धर्म -कर्म में लगे हैं l उन्होंने लोगों से पूछा --- " आप यह क्यों कर रहे हैं ? " उत्तर मिला --- " यह संसार नश्वर है l हम यह भक्ति इसलिए कर रहे हैं कि नित्य कुछ - न -कुछ पापकर्म तो होते ही रहते हैं , भक्ति , पूजा से उनकी शुद्धि कर लेते हैं l " उनके आचरण और वाणी में कोई सामंजस्य न देखकर वे आगे बढ़े l रात्रि हो गई थी , उन्होंने देखा एक अँधा दीपक जलाए बैठा था l आने वालों की पदचाप सुनकर वह उन्हें राह बताता था l कीचड़ में सने व्यक्तियों के हाथ -पैर धुलाकर उन्हें अपने पास विश्राम के लिए बैठाता था और भूखे -प्यासे को यथा संभव खिलाता-पिलाता था l दिन होने पर थोड़ी देर विश्राम कर वह बगीचे में काम करने लगा , ताकि कुछ सब्जी बेचकर गुजारे लायक राशि जुटा सके l जय - विजय यह द्रश्य देखकर उससे पूछ बैठे --- " आप ईश्वर उपासना नहीं करते l सुबह का समय तो इसलिए होता है l " अँधा बोला --- " मुझे तो रात्रि में लोगों को राह बताना , उनकी सेवा करना और दिन में श्रम करना ही उपासना का स्वरुप समझ में आया l इससे अधिक मैं नहीं जानता l ' अपना निरीक्षण पूरा कर जय -विजय लौटे l विधाता ने उनके लिखे विवरण को ध्यानपूर्वक पढ़ा और बोले --- " तुम्हारा विवरण देखकर मुझे लगता है कि वर्तमान में शेष सभी तो आडम्बर और दिखावे में लगे हैं l मात्र यह अँधा ही स्वर्ग का सच्चा अधिकारी है l " जय -विजय की उलझन देखकर वे बोले --- " तात ! उपासना मात्र जप -तप नहीं है वरन जनमानस को सही दिशा देना भी उपासना का एक स्वरुप है l निर्मल अंत:करण में ही ईश्वर निवास करते हैं l "
No comments:
Post a Comment