महाभारत की कथा हमें यह सिखाती है कि -- अहंकारी व्यक्ति का कभी कोई अहसान न ले , उससे कभी कोई मदद न ले l वो अहसान जता -जताकर आपका जीना दूभर कर देगा l भीष्म पितामह , द्रोणाचार्य आदि दुर्योधन के साथ रहकर राजमहल की सब सुख -सुविधाओं का उपभोग करते थे , दुर्योधन समय -समय पर अपना अहसान जताता भी था l इस कारण उन्होंने दुर्योधन की हर गलत नीति का मौन रहकर समर्थन किया l दुर्योधन ने कर्ण को अपना मित्र बनाकर उस पर अहसान किया और कर्ण ने अपनी जान देकर उस मित्रता का मोल चुकाया l केवल महात्मा विदुर में ऐसा स्वाभिमान था कि उन्होंने महल के सुखों को त्याग दिया और वहां से कुछ दूरी पर अपनी कुटिया बनाकर चाहे गरीबी में ही रहे लेकिन स्वाभिमान से रहे , स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उस कुटिया में उनका आतिथ्य स्वीकार किया l --------- एक बार विदुर जी ने धृतराष्ट्र को समझाने का प्रयास किया कि पुत्र मोह में पड़कर विवेकहीन मत बनो , अनीति मत अपनाओ l दुर्योधन को पता लगा कि चाचा विदुर पिताजी को उसके विरुद्ध सलाह दे रहे हैं l उसने उन्हें दरबार में बुलाया और अपमानित किया , कहा --- " तुम दासी पुत्र हो l मेरा ही अन्न खाकर मेरी ही निंदा करते हो l " विदुर जी जरा भी विचलित नहीं हुए और बोले --- " बेटा ! मैं क्या हूँ , यह तुमसे अधिक अच्छी तरह समझता हूँ l वन के शाक -पात मैं बारह वर्षों से खा रहा हूँ , तुम्हारा अन्न नहीं खा रहा l तुम्हारे पिताजी अर्थात मेरे बड़े भाई ने ही मुझे बुलाकर मेरी मेरी सलाह मांगी तो मुझे जो उचोत लगा , अपने अनुभव के आधार पर सलाह दी l तुम्हे नहीं रुचता तो अपने पिता से कहो कि मुझे परामर्श के लिए न बुलाया करें l " इस अपमान पर विदुर जी न उत्तेजित हुए , न विचलित l उनकी सहन शक्ति , संतुलन क्षमता अद्भुत थी l वे नीतिज्ञ थे l
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