संसार में अनेक प्राणी हैं , पशु -पक्षी , जीव -जंतु आदि हैं लेकिन केवल मनुष्य को ही यह विशेष सुविधा प्राप्त है कि वह अपनी गलतियों को सुधार कर , अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर नियंत्रण कर नर से नारायण की यात्रा पूर्ण कर सकता l नर से नारायण बनने की यह यात्रा बहुत कठिन है l बाहरी बाधाएं तो हैं लेकिन सबसे बड़ा महाभारत तो अपने अंदर ही चलता है , लोभ , लालच , तृष्णा , कामना , वासना , अहंकार , ईर्ष्या , द्वेष , क्रोध ---- समय -समय पर भीतर से फुफकारती हैं और मनुष्य को अध्यात्म पथ पर आगे नहीं बढ़ने देतीं l ये सब दुर्गुण ऐसे हैं जिन पर नियंत्रण करना , इन पर विजय पाना बहुत कठिन है केवल एक ही रास्ता है , ईश्वर की शरण में जा कर ही नर से नारायण बनने की राह आसान हो जाती है l बड़े -बड़े ऋषि , योगी भी क्रोध व अहंकार से नहीं बचे हैं l ------ कहोड़ एक ऋषि थे , बहुत ज्ञान था उन्हें l लेकिन अपने क्रोध और अहंकार पर नियंत्रण नहीं था l जितना ज्ञान उन्हें था , उससे कहीं ज्यादा और अद्भुत ज्ञान उनके बालक को था जो अभी अपनी माँ के गर्भ में था l ज्ञान की चर्चा में गर्भस्थ शिशु ने अपने पिता से कहा ---- " आप समझते हैं कि शास्त्र को पढ़कर ज्ञान प्राप्त कर लेंगे , लेकिन यह आपका वहम है l ज्ञान तो स्वयं के अंदर है l जब तक अन्दर को न उघाड़ा जाये , ज्ञान प्रकट नहीं होता l ' गर्भस्थ शिशु की यह बात सुनकर ऋषि का अहंकार चोटिल हुआ , उन्हें बहुत क्रोध आया l उन्होंने कहा --- " रे अजन्मे बालक ! तेरा इतना दुस्साहस कि तू संसार और संसार से परे का ज्ञान रखने वाले अपने पिता को ज्ञान दे रहा है l तुम्हे अपनी मर्यादा का ध्यान नहीं है , इस दुस्साहस के लिए मैं तुम्हे अवश्य दण्डित करूँगा l " अपने पति का क्रोध देखकर ऋषि पत्नी सहम गईं और शिशु की ओर से क्षमा मांगने लगीं और बेहोश हो गईं l शिशु माँ के गर्भ में शांत और स्थिर था l माता के होश में आने पर वह अपने पिता से बोला ---" हे पिताजी ! मैं आपका अपमान नहीं कर रहा , मैं तो वही कह रहा हूँ जो सर्वकालिक सत्य है , यदि आप सत्य को पहचान नहीं पाते तो यह आपकी कमी व अज्ञानता है l " अब तो ऋषि कहोड़ के क्रोध का ठिकाना न रहा , उन्होंने क्रोध में अपने कमंडल से जल हाथ में लेकर उसे अभिमंत्रित करते हुए बोले --- " मैं ऋषि कहोड़ ! तुझ अजन्मे बालक को शाप देता हूँ कि जब तू जन्म लेगा तो तेरा शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा -मेढ़ा हो जायेगा l लोग तुझे देखकर हँसेंगे , उपहास करेंगे l " यह क्रोध की अति थी l आठ स्थानों से कुबड़े होने का यह अभिशाप बालक को योग साधना से , योग के आठ अंगों से सर्वथा वंचित करने के लिए था l अजन्मा शिशु जोर से हँसा और बोला --- " आप तो अज्ञानी की तरह बरताव कर रहे हैं l शरीर तो वस्त्र है , आत्मा किसी भी शाप या वरदान से अप्रभावित रहती है l " बालक ने जब जन्म लिया तो ऋषि कहोड़ का शाप फलीभूत हुआ l आठ स्थानों से टेढ़ा -मेढ़ा होने के कारण उन्हें 'अष्टावक्र' कहा गया l अष्टावक्र महान ज्ञानी थे , वे सुख -दुःख से परे आनंद अवस्था में रहते थे l राजा जनक उनसे ज्ञान प्राप्त करते और उनका बहुत सम्मान करते थे l
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