पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- " सार्थकता स्व -सृजन में है , परचर्चा , परनिंदा में नहीं l दूसरों की निंदा में खर्च किया जाने वाला समय अपने दोष ढूँढने में लगाओ l दूसरों को सुधारने के लिए प्रयत्न करने का पहला चरण अपने सुधार से आरम्भ करो l " गोस्वामी जी कहते हैं ----पर निंदा से बढ़कर कोई पाप नहीं l वे कहते हैं कि निंदा हिंसा से भी बढ़कर है l जिसके भी दोषों का हम चिन्तन करते हैं , हमारा मन उससे तदाकार हो जाता है l उसके दोष भी हमारे अन्दर आ जाते हैं l चित्त में विकृति का अंधकार बढ़ता चला जाता है l ' ----- संत गंगा किनारे बैठकर ध्यान कर रहे थे l आरती में अभी समय था l दो -चार शिष्य बैठकर प्रपंच करने लगे l प्रपंच अर्थात व्यर्थ की बकवास --- इसकी निंदा , उसकी हँसी उड़ाना l जैसे ही वे गुरु के पास आए तो गुरु ने कहा ---- " तुम हमें छूना मत ! तुम लोग चांडाल हो गए हो l अभी -अभी तो तुम बुराई कर रहे थे l संन्यासी होकर प्रपंच में उलझना ठीक नहीं है l संसारी लोगों की तरह मत रहो l जाओ , गंगा में नहाओ l गंगाजल हाथ में लेकर संकल्प लो , फिर हमें प्रणाम करना और आरती में भाग लेना l "
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