पं .श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- "इस संसार से हमने जो कुछ भी पाया है , जिनका भी संग्रह किया है , जितना कुछ भी बनाया ----- वे सभी चीजें शरीर का अंत होने पर यहीं रह जाएँगी , एकमात्र कर्म ही ऐसे हैं , जो हमारे साथ जाएंगे l हमारे कर्मों की श्रेष्ठता या निकृष्टता को संसार भले ही न जाने या न पहचाने , लेकिन हमारे ह्रदय में विराजमान परमात्मा हमारे कर्मों को और उन कर्मों के पीछे छिपी भावनाओं को अच्छी तरह जानते हैं l इस शरीर के माध्यम से ऐसे कर्म किए जा सकते हैं , जो इस शरीर की अभिव्यक्ति को निखार सकते हैं l हमारे अच्छे कर्म ही हमारी कुरूपता को छिपाते और सुन्दरता को निखारते हैं l कर्म की महिमा अमिट , अनंत व अपार है l "-------- एक बार की बात है विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात दर्पण में अपना चेहरा देख रहे थे l उसी समय उनका शिष्य उनके कमरे में आया और गुरु को इस तरह दर्पण देखते हुए देखकर मुस्कराने लगा l सुकरात ने शिष्य को मुस्कराते देखा तो उसकी दुविधा को भाँप गए और शिष्य से बोले ---- " मैं जान गया कि तुम क्यों हँस रहे हो ? शायद तुम सोच रहे हो कि मुझ जैसा कुरूप व्यक्ति दर्पण में अपना मुंह क्यों देख रहा है ? " शिष्य अपनी गलती पकड़ी जाने से लज्जित हुआ l सुकरात ने उसे यह रहस्य बताया और कहा --- " मैं कुरूप हूँ इसलिए रोज शीशा देखता हूँ l ताकि इसे देखकर मुझे अपनी कुरूपता का एहसास रहे इसलिए मैं हर रोज कोशिश करता हूँ कि ऐसे अच्छे कर्म करूँ , जिनके नीचे मेरी यह कुरूपता ढक जाए l मेरे कर्म मुझसे बड़े बन जाएँ l " इस पर शिष्य ने जिज्ञासा प्रकट की ---- " तो क्या सुन्दर लोगों को कभी दर्पण नहीं देखना चाहिए ? " सुकरात ने समझाया ---- " सुन्दर लोगों को भी दर्पण अवश्य देखना चाहिए , ताकि उन्हें ध्यान रहे कि जितने वे सुन्दर हैं , उतने ही सुन्दर काम भी करें वरना उनके बुरे काम उनकी सुन्दरता कम कर देंगे l "
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