पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ------ " ' दक्ष ' को देवाधिदेव महादेव ने उसकी कुमार्गगामिता का दंड उसका मानवीय सिर काटकर , बकरे का सिर लगाकर दिया था l दक्ष की चतुरता का वास्तविक स्वरुप यही था l आज भी ' दक्षों ' ने ---- चतुरों ने यही कर रखा है l ये तथाकथित चतुर लोग समाज के मूर्द्धन्य बने बैठे तिकड़म को ही अपना आधार बनाये हुए हैं l दूसरों के सहारे वे छल - बल से आगे बढ़ते हैं , ऊँचा उठते हैं l तप और त्याग का नाम भी नहीं है l ऐसे मूर्द्धन्य लोगों का बाहुल्य व्यक्ति और समाज की आत्मा को कुचल - मसल रहा है l यह स्थिति महाकाल को असह्य है l आज का मानवीय चातुर्य , जो सुविधा - साधनों के अहंकार में अपनी वास्तविक राह छोड़ बैठा है , वैसी ही दुर्गति का अधिकारी बनेगा , जैसा की दक्ष का सारा परिवार बना था l " आचार्य श्री लिखते हैं ---- " कभी - कभी ऐसा समय आता है कि छूत की बीमारी की तरह अनाचार भी गति पकड़ लेता है और अपने आप अमर बेल की तरह बढ़ने लगता है l गलतियां दोनों ओर से होती हैं -- अनाचारी अपनी दुष्टता से बाज नहीं आता है और सताए जाने वाले कायरता , भीरुता अपनाकर टकराने की नीति नहीं अपनाते l तब स्रष्टा को भी क्रोध आता है और जो मनुष्य नहीं कर पाता , उसे स्वयं करने के लिए तैयार होता है l " मनुष्य सन्मार्ग पर चले अन्यथा शिवजी का तृतीय नेत्र खुलने और भगवान कृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र आने में देर नहीं लगती l
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