पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कहना है ----- '' स्वर्णिम नियम यही है कि शुरू करने से पहले किसी भी काम या योजना के बारे में अच्छी तरह सोच विचार कर लिया जाए l कोई भी पक्ष , संभावना या कठिनाई अनदेखी न रह जाये l भलीभाँति विचार के बाद जो भी शुरू करें , उसे पूरा कर के ही विराम लें l किसी भी स्थिति में उसे आधा - अधूरा न छोड़ें l ज्ञात इतिहास में भारत को पहली बार एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने वाले सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य को बचपन में कौटिल्य ने पहली शिक्षा यही दी थी l नन्द वंश के सड़े -गले दुराचारी शासन का अंत करने के लिए कौटिल्य ने मुरा नाम की दासी के होनहार पुत्र चन्द्रगुप्त को चुना , तो दीक्षा देते हुए पहला वाक्य कहा --- " आरभ्यते इति " आरम्भ किया जाये , तो इति तक पहुँचने के लिए ही l प्रतिभाशाली छात्र ने उपदेश सुनकर ही ' हाँ ' नहीं कह दिया l उसके मन में प्रश्न उठा कि परिस्थितियां हो सकती हैं , जिनमें कार्य पूरा न हो सके l शिष्य ने शंका रखी तो गुरु ने कहा --- '' राजा दैव विवर्जित " अर्थात सिर्फ शासन और भाग्य ही बाधक हो सकता है l राजसत्ता कोई विध्न उत्पन्न कर दे अथवा कोई रोग , विपत्ति घेर ले तो अलग बात है , अन्यथा काम पूरा होने से पहले विश्राम नहीं l लोक कथा कहती है कि यह पाठ पढ़ने के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अब से ढाई हजार वर्ष पहले सुदृढ़ राष्ट्र की नींव रखी l "
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