एक बार की बात है धारा नगरी में आग लग गई l दो सुकुमार बच्चे आग की लपट में घिर गए l महाराज भोज चिल्लाये जो इन बच्चों को बचाएगा उसे पुरस्कार दिया जायेगा l भीड़ में से कोई आगे नहीं बढ़ रहा था l तभी एक ओर से एक व्यक्ति आया और आग में घुस गया l दोनों बच्चों को निकाल तो लाया , पर स्वयं बुरी तरह जल गया l उपचार के बाद पहचान में आया कि वह तो महान उदार , दयालु कवि माघ थे l महाराजा भोज ने शीश झुकाते हुए कहा --- " कविवर ! आज तो तुमने काव्य से भी अधिक अपनी कर्तव्य परायणता से हम सबको जीत लिया l " कवि बोले ---- " महाराज ! आप सबका स्नेह - सम्मान बहुमूल्य है , परन्तु आज मैंने अपना कर्तव्यपालन कर के अपनी अंतरात्मा का स्नेह - सम्मान पा लिया l इस आत्मसंतोष के आगे चमड़ी की जलन कोई महत्व नहीं रखती l "